कविता बघेल (वार्ता | योगदान) |
दिनेश चन्द (वार्ता | योगदान) |
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− | ‘देखो तो सही, यह राजकुमार कैसा कृतघ्न, अत्यन्त क्रूर और विश्वासघाती है! अच्छा, आज मैं इससे इस वैर का बदला लेकर ही रहूँगी। जो साथ ही पैदा हुआ और साथ ही पाला-पोसा गया हो, साथ ही भेाजन करता हो और शरण में आकर रहता हो, ऐसे व्यक्ति का वध करने से उपर्युक्त तीन प्रकार का पातक लगता है’। ऐसा कहकर पूजनी ने अपने दोनों पंजो से राजकुमार की दोनों आँखें फोड़ डालीं। फोड़कर वह आकाश में स्थिर हो गयी और इस प्रकार बोली- ‘इस जगत में स्वेच्छा से जो पाप किया जाता है, उसका फल तत्काल ही कर्ता को मिल जाता है। | + | ‘देखो तो सही, यह राजकुमार कैसा कृतघ्न, अत्यन्त क्रूर और विश्वासघाती है! अच्छा, आज मैं इससे इस वैर का बदला लेकर ही रहूँगी। जो साथ ही पैदा हुआ और साथ ही पाला-पोसा गया हो, साथ ही भेाजन करता हो और शरण में आकर रहता हो, ऐसे व्यक्ति का वध करने से उपर्युक्त तीन प्रकार का पातक लगता है’। ऐसा कहकर पूजनी ने अपने दोनों पंजो से राजकुमार की दोनों आँखें फोड़ डालीं। फोड़कर वह आकाश में स्थिर हो गयी और इस प्रकार बोली- ‘इस जगत में स्वेच्छा से जो पाप किया जाता है, उसका फल तत्काल ही कर्ता को मिल जाता है। जिनके पाप का बदला मिल जाता है, उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होते हैं। ‘राजन यदि यहाँ किये हुए पापकर्म का कोई फल कर्ता को मिलता न दिखायी दे तो यह समझना चाहिये कि उसके पुत्रों, पोतों और नातियों को उसका फल भोगना पड़ेगा’। [[ब्रह्मदत्त (काम्पिल्य नरेश)|राजा ब्रह्मदत्त]] ने देखा कि पूजनी ने मेरे पुत्र की आँखें ले लीं, तब उन्होंने यह समझ लिया कि राजकुमार को उसके कुकर्म का ही बदला मिला है। यह सोचकर राजा ने रोष त्याग दिया और पूजनी से इस प्रकार कहा। ब्रह्मदत्त बोले- पूजनी! हमने तेरा अपराध किया था और तूने उसका बदला चुका लिया। अब हम दोनों का कार्य बराबर गया। इसलिये अब यहीं रह। किसी दूसरी जगह न जा। |
− | + | पूजनी बोली- राजन! एक बार किसी का अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान पुरुष उसके इस कार्य की प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँ से भाग जाने में ही उसका कल्याण है। जब किसी से वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपडी़ बातों में आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करने से वैर की आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करने वाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है। जो लोग आपस में वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पोत्रों तक को पीड़ा देता है। पुत्रों-पोत्रों का विनाश हो जाने पर परलोक में भी वह साथ नहीं छोड़ता है। जो लोग आपस में वैर रखने वाले हैं, उन सबके लिये सुख की प्राप्ति का उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्यों का सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। जो विश्वास पात्र न हो, उस पर विश्वास न करे। जो विश्वास का पात्र हो, उस पर भी अधिक विश्वास करे; क्योंकि विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय विश्वास करने वाले का मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरों का विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरों का विश्वास न करे। [[माता]] और [[पिता]] स्वाभाविक स्नेह होने के कारण बान्धवगणों में सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्य की नाशक (होने से) वृद्धावस्था का मूर्तिमान् रूप है, पुत्र अपना ही अंश है, भाई (धन में हिस्सा बाँटाने के कारण) शत्रु समझा जाता है और [[मित्र]] तभी तक मित्र है, जब तक उसका हाथ गीला रहता है अर्थात जब तक उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहता है; केवल [[आत्मा]] ही सुख और दु:ख का भोग करने वाला कहा गया है। | |
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− | पूजनी बोली- राजन! एक बार किसी का अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान पुरुष उसके इस कार्य की प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँ से भाग जाने में ही उसका कल्याण है। जब किसी से वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपडी़ बातों में आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करने से वैर की आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करने वाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है। जो लोग आपस में वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पोत्रों तक को पीड़ा देता है। पुत्रों-पोत्रों का विनाश हो जाने पर परलोक में भी वह साथ नहीं छोड़ता है। जो लोग आपस में वैर रखने वाले हैं, उन सबके लिये सुख की प्राप्ति का उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्यों का सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। जो विश्वास पात्र न हो, उस पर विश्वास न करे। जो विश्वास का पात्र हो, उस पर भी अधिक विश्वास करे; क्योंकि विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय विश्वास करने वाले का मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरों का विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरों का विश्वास न करे। [[माता]] और [[पिता]] स्वाभाविक स्नेह होने के कारण बान्धवगणों में सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्य की नाशक (होने से) | + | |
13:40, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
एकोनचत्वारिंशदधिकशततम (139) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद
पूजनी बोली- राजन! एक बार किसी का अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान पुरुष उसके इस कार्य की प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँ से भाग जाने में ही उसका कल्याण है। जब किसी से वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपडी़ बातों में आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करने से वैर की आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करने वाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है। जो लोग आपस में वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पोत्रों तक को पीड़ा देता है। पुत्रों-पोत्रों का विनाश हो जाने पर परलोक में भी वह साथ नहीं छोड़ता है। जो लोग आपस में वैर रखने वाले हैं, उन सबके लिये सुख की प्राप्ति का उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्यों का सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये। जो विश्वास पात्र न हो, उस पर विश्वास न करे। जो विश्वास का पात्र हो, उस पर भी अधिक विश्वास करे; क्योंकि विश्वास से उत्पन्न होने वाला भय विश्वास करने वाले का मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरों का विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरों का विश्वास न करे। माता और पिता स्वाभाविक स्नेह होने के कारण बान्धवगणों में सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्य की नाशक (होने से) वृद्धावस्था का मूर्तिमान् रूप है, पुत्र अपना ही अंश है, भाई (धन में हिस्सा बाँटाने के कारण) शत्रु समझा जाता है और मित्र तभी तक मित्र है, जब तक उसका हाथ गीला रहता है अर्थात जब तक उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहता है; केवल आत्मा ही सुख और दु:ख का भोग करने वाला कहा गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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