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दिनेश चन्द (वार्ता | योगदान) |
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वे दोनों बलवान और बुद्धिमान तो थे ही। चूहे के घात में पास ही बैठे हुए थे; परंतु अच्छी नीति से संगठित हो जाने कारण चूहे और बिलाव पर वे बलपूर्वक आक्रमण न कर सके। चूहे और बिलाव को कार्यवश संधिसूत्र में बँधें देख उल्लू और नेवला दोनों अपने-अपने निवास स्थान को चले गये। | वे दोनों बलवान और बुद्धिमान तो थे ही। चूहे के घात में पास ही बैठे हुए थे; परंतु अच्छी नीति से संगठित हो जाने कारण चूहे और बिलाव पर वे बलपूर्वक आक्रमण न कर सके। चूहे और बिलाव को कार्यवश संधिसूत्र में बँधें देख उल्लू और नेवला दोनों अपने-अपने निवास स्थान को चले गये। | ||
− | तदनन्तर चूहे ने बिलाव का बन्धन काट दिया। जाल से छूटते ही बिलाव उसी पेड़ पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहट से छुटकारा पाकर पलित अपने बिल में घुस गया और लोमश वृक्ष की शाखा पर जा बैठा। भरतश्रेष्ठ! चाण्डाल ने उस जाल को लेकर उसे सब ओर से उलट-पलटकर देखा ओर निराश होकर क्षणभर में उस स्थान से हट गया और अन्त में अपने घर को चला गया। उस भारी भय से मुक्त हो दुर्लभ जीवन पाकर [[वृक्ष]] की शाखा पर बैठे हुए लोमश ने बिल के भीतर बैठे हुए चूहे से कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिल में क्यों घुस गये? मैं तो तुम्हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा करके तुम्हारा ही बड़ा भारी काम किया है। तुम्हें मेरी ओर से कुछ शंका तो नहीं है। ‘मित्र! तुमने विपत्ति के समय मेरा विश्वास किया और मुझे जीवन दान दिया। अब तो मैत्री के सुख का उपभोग करने का समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्यों नहीं आते हो? ‘जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्र भाव में स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनि विपत्ति मे पड़ने पर उन मित्रों को नहीं पाता है अर्थात उनसे उसको सहायता नहीं मिलती। ‘सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्ति के अनुसार मेरा पूरा सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारा मित्र हो गया हूँ, अत: | + | तदनन्तर चूहे ने बिलाव का बन्धन काट दिया। जाल से छूटते ही बिलाव उसी पेड़ पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहट से छुटकारा पाकर पलित अपने बिल में घुस गया और लोमश वृक्ष की शाखा पर जा बैठा। भरतश्रेष्ठ! चाण्डाल ने उस जाल को लेकर उसे सब ओर से उलट-पलटकर देखा ओर निराश होकर क्षणभर में उस स्थान से हट गया और अन्त में अपने घर को चला गया। उस भारी भय से मुक्त हो दुर्लभ जीवन पाकर [[वृक्ष]] की शाखा पर बैठे हुए लोमश ने बिल के भीतर बैठे हुए चूहे से कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिल में क्यों घुस गये? मैं तो तुम्हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा करके तुम्हारा ही बड़ा भारी काम किया है। तुम्हें मेरी ओर से कुछ शंका तो नहीं है। ‘मित्र! तुमने विपत्ति के समय मेरा विश्वास किया और मुझे जीवन दान दिया। अब तो मैत्री के सुख का उपभोग करने का समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्यों नहीं आते हो? ‘जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्र भाव में स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनि विपत्ति मे पड़ने पर उन मित्रों को नहीं पाता है अर्थात उनसे उसको सहायता नहीं मिलती। ‘सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्ति के अनुसार मेरा पूरा सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारा मित्र हो गया हूँ, अत: तुम्हें मेरे साथ रहकर इस मित्रता का सुख भोगना चाहिये। ‘मेरे जो भी मित्र, सम्बन्धी, और बन्धु-बान्धव हैं, वे सब तुम्हारी उसी प्रकार सेवा-पूजा करेंगे, जैसे शिष्य अपने श्रद्धेय गुरु की करते हैं। ‘मैं भी मित्रों और बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हारा सदा ही आदर-सत्कार करूँगा। संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवनदाता की पूजा न करे? ‘तुम मेरे शरीर के और मेरे घर के भी स्वामी हो जाओ। मेरी जो कुछ भी सम्पति है, वह सारी-की-सारी तुम्हारी है। तुम उसके शासक और व्यवस्थापक बनो। ‘विद्वन, तुम मेरे मन्त्री हो जाओ और पिता की भाँति मुझे कर्तव्य का उपदेश दो। मैं अपने जीवन की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हें हम लोगों की ओर से कोई भय नहीं है। ‘तुम साक्षात [[शुक्राचार्य]] के समान बुद्धिमान हो। तुममें मन्त्रणा का बल है। आज तुमने मुझे जीवनदान देकर अपने मन्त्रणाबल से हम सब लोगों के हृदय पर अधिकार प्राप्त कर लिया है’। |
बिलाव की ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्त्म मन्त्रणा के ज्ञाता चूहे ने मधुर वाणी में अपने लिये हितकर वचन कहा- ‘लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्यान देकर सुना। अब मेरी [[बुद्धि]] में जो विचार स्फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अत: मेरे इस कथन को भी सुन लो। | बिलाव की ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्त्म मन्त्रणा के ज्ञाता चूहे ने मधुर वाणी में अपने लिये हितकर वचन कहा- ‘लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्यान देकर सुना। अब मेरी [[बुद्धि]] में जो विचार स्फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अत: मेरे इस कथन को भी सुन लो। |
12:11, 30 मार्च 2018 के समय का अवतरण
अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 119-136 का हिन्दी अनुवाद
तदनन्तर चूहे ने बिलाव का बन्धन काट दिया। जाल से छूटते ही बिलाव उसी पेड़ पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहट से छुटकारा पाकर पलित अपने बिल में घुस गया और लोमश वृक्ष की शाखा पर जा बैठा। भरतश्रेष्ठ! चाण्डाल ने उस जाल को लेकर उसे सब ओर से उलट-पलटकर देखा ओर निराश होकर क्षणभर में उस स्थान से हट गया और अन्त में अपने घर को चला गया। उस भारी भय से मुक्त हो दुर्लभ जीवन पाकर वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए लोमश ने बिल के भीतर बैठे हुए चूहे से कहा- ‘भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिल में क्यों घुस गये? मैं तो तुम्हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्हारे प्राणों की रक्षा करके तुम्हारा ही बड़ा भारी काम किया है। तुम्हें मेरी ओर से कुछ शंका तो नहीं है। ‘मित्र! तुमने विपत्ति के समय मेरा विश्वास किया और मुझे जीवन दान दिया। अब तो मैत्री के सुख का उपभोग करने का समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्यों नहीं आते हो? ‘जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्र भाव में स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनि विपत्ति मे पड़ने पर उन मित्रों को नहीं पाता है अर्थात उनसे उसको सहायता नहीं मिलती। ‘सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्ति के अनुसार मेरा पूरा सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारा मित्र हो गया हूँ, अत: तुम्हें मेरे साथ रहकर इस मित्रता का सुख भोगना चाहिये। ‘मेरे जो भी मित्र, सम्बन्धी, और बन्धु-बान्धव हैं, वे सब तुम्हारी उसी प्रकार सेवा-पूजा करेंगे, जैसे शिष्य अपने श्रद्धेय गुरु की करते हैं। ‘मैं भी मित्रों और बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हारा सदा ही आदर-सत्कार करूँगा। संसार में ऐसा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवनदाता की पूजा न करे? ‘तुम मेरे शरीर के और मेरे घर के भी स्वामी हो जाओ। मेरी जो कुछ भी सम्पति है, वह सारी-की-सारी तुम्हारी है। तुम उसके शासक और व्यवस्थापक बनो। ‘विद्वन, तुम मेरे मन्त्री हो जाओ और पिता की भाँति मुझे कर्तव्य का उपदेश दो। मैं अपने जीवन की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हें हम लोगों की ओर से कोई भय नहीं है। ‘तुम साक्षात शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान हो। तुममें मन्त्रणा का बल है। आज तुमने मुझे जीवनदान देकर अपने मन्त्रणाबल से हम सब लोगों के हृदय पर अधिकार प्राप्त कर लिया है’। बिलाव की ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्त्म मन्त्रणा के ज्ञाता चूहे ने मधुर वाणी में अपने लिये हितकर वचन कहा- ‘लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्यान देकर सुना। अब मेरी बुद्धि में जो विचार स्फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अत: मेरे इस कथन को भी सुन लो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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