छो (Text replacement - "होता हैं" to "होता है") |
दिनेश चन्द (वार्ता | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
− | विद्वान पुरुष क्षत्रिय को प्रजा का रक्षक और विनाशक भी मानते है। अत: क्षत्रियबन्धु को प्रजा की रक्षा करते हुए ही धन ग्रहण करना चाहिये। राजन! इस संसार में किसी की भी ऐसी वृत्ति नहीं है, जो हिंसा से शून्य हो। औरों की तो बात ही क्या है, वन में रहकर एकाकी विचरने वाले तपस्वी मुनि की भी वृत्ति सर्वथा हिंसारहित नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! कोई भी ललाट में लिखी हुई वृत्ति का ही भरोसा करके जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता; अत: प्रजापालन की इच्छा रखने वाले राजा का भाग्य के भरोसे निर्वाह चलाना तो सर्वथा अशक्य है। इसलिये आपत्ति काल में राजा और राज्य की प्रजा दोनों को निरन्तर एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये। यही सदा का [[धर्म]] है। जैसे राजा प्रजा पर संकट आ जाय तो राशि-राशि धन लुटाकर भी उसकी रक्षा करता है, उसी तरह राजा के ऊपर संकट पड़ने पर राष्ट्र की प्रजा को भी उसकी रक्षा करनी चाहिये। राजा भूख से पीड़ित होने-जीविका के लिये कष्ट पाने पर भी खजाना, राजदण्ड, सेना, मित्र तथा अन्य संचित साधनों को कभी राज्य से दूर न करे। | + | विद्वान पुरुष [[क्षत्रिय]] को प्रजा का रक्षक और विनाशक भी मानते है। अत: क्षत्रियबन्धु को प्रजा की रक्षा करते हुए ही धन ग्रहण करना चाहिये। राजन! इस संसार में किसी की भी ऐसी वृत्ति नहीं है, जो हिंसा से शून्य हो। औरों की तो बात ही क्या है, वन में रहकर एकाकी विचरने वाले तपस्वी मुनि की भी वृत्ति सर्वथा हिंसारहित नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! कोई भी ललाट में लिखी हुई वृत्ति का ही भरोसा करके जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता; अत: प्रजापालन की इच्छा रखने वाले राजा का भाग्य के भरोसे निर्वाह चलाना तो सर्वथा अशक्य है। इसलिये आपत्ति काल में राजा और राज्य की प्रजा दोनों को निरन्तर एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये। यही सदा का [[धर्म]] है। जैसे राजा प्रजा पर संकट आ जाय तो राशि-राशि धन लुटाकर भी उसकी रक्षा करता है, उसी तरह राजा के ऊपर संकट पड़ने पर राष्ट्र की प्रजा को भी उसकी रक्षा करनी चाहिये। राजा भूख से पीड़ित होने-जीविका के लिये कष्ट पाने पर भी खजाना, राजदण्ड, सेना, मित्र तथा अन्य संचित साधनों को कभी राज्य से दूर न करे। |
− | धर्मज्ञ पुरुषों का कहना है कि मनुष्य को अपने भोजन के लिये संचित अन्न में से भी बीज को बचाकर रखना चाहिये। इस विषय में महामायावी [[शम्बर|शम्बरासुर]] का विचार भी ऐसा ही बताया गया है। जिसके राज्य की प्रजा तथा वहाँ आये हुए परदेशी मनुष्य भी जीविका के बिना कष्ट पा रहे हों उस राजा के जीवन को धिक्कार है। राजा की जड़ है सेना और खजाना। इनमे भी खजाना ही सेना की जड़ है। सेना सम्पूर्ण धर्मो की रक्षा का मूल कारण है और धर्म ही प्रजा की जड़ है। दूसरों को पीड़ा दिये बिना धन का संग्रह नहीं किया जा सकता है; और धन-संग्रह के बिना सेना का संग्रह कैसे हो सकता है? अत: आपत्ति काल में कोश या धनसंग्रह के लिये प्रजा को पीड़ा देकर भी राजा दोष का भागी नहीं हो सकता। जैसे यज्ञ कर्मों में [[यज्ञ]] के लिये वह कार्य भी किया जाता है जो करने योग्य नहीं हैं (कितु वह दोषयुक्त नहीं माना जाता)। उसी प्रकार आपत्ति काल में प्रजापीडन से राजा को दोष नहीं लगता है। आपत्ति काल में प्रजापीडन अर्थसंग्रहरूप प्रयोजन का साधक होने के कारण अर्थकारक होता है, इसके विपरीत उसे पीड़ा न देना ही अनर्थकारक हो जाता है। इसी प्रकार जो दूसरे अनर्थकारी (व्यय बढ़ाने वाले सैन्य-संग्रह आदि) कार्य हैं, वे भी युद्ध का संकट उपस्थित होने पर अर्थकारी (विजय साधक) सिद्ध होते हैं। बुद्धिमान पुरुष इस प्रकार बुद्धि से विचार करके | + | धर्मज्ञ पुरुषों का कहना है कि मनुष्य को अपने भोजन के लिये संचित अन्न में से भी बीज को बचाकर रखना चाहिये। इस विषय में महामायावी [[शम्बर|शम्बरासुर]] का विचार भी ऐसा ही बताया गया है। जिसके राज्य की प्रजा तथा वहाँ आये हुए परदेशी मनुष्य भी जीविका के बिना कष्ट पा रहे हों उस राजा के जीवन को धिक्कार है। राजा की जड़ है सेना और खजाना। इनमे भी खजाना ही सेना की जड़ है। सेना सम्पूर्ण धर्मो की रक्षा का मूल कारण है और धर्म ही प्रजा की जड़ है। दूसरों को पीड़ा दिये बिना धन का संग्रह नहीं किया जा सकता है; और धन-संग्रह के बिना सेना का संग्रह कैसे हो सकता है? अत: आपत्ति काल में कोश या धनसंग्रह के लिये प्रजा को पीड़ा देकर भी राजा दोष का भागी नहीं हो सकता। जैसे यज्ञ कर्मों में [[यज्ञ]] के लिये वह कार्य भी किया जाता है जो करने योग्य नहीं हैं (कितु वह दोषयुक्त नहीं माना जाता)। उसी प्रकार आपत्ति काल में प्रजापीडन से राजा को दोष नहीं लगता है। आपत्ति काल में प्रजापीडन अर्थसंग्रहरूप प्रयोजन का साधक होने के कारण अर्थकारक होता है, इसके विपरीत उसे पीड़ा न देना ही अनर्थकारक हो जाता है। इसी प्रकार जो दूसरे अनर्थकारी (व्यय बढ़ाने वाले सैन्य-संग्रह आदि) कार्य हैं, वे भी युद्ध का संकट उपस्थित होने पर अर्थकारी (विजय साधक) सिद्ध होते हैं। बुद्धिमान पुरुष इस प्रकार बुद्धि से विचार करके कर्त्तव्य का निश्चय करे। जैसे अन्याय सामग्रियाँ [[यज्ञ]] की सिद्धि के लिये होती है, उत्तम यज्ञ किसी और ही प्रयोजन के लिये होता है, यज्ञ-सम्बन्धी अन्यान्य बातें भी किसी-न-किसी विशेष उदेश्य की सिद्धि के लिये ही होती हैं, तथा यह सब कुछ यज्ञ का साधन ही हैं। |
− | अब मैं यहाँ [[धर्म]] के तत्त्व को प्रकाशित करने वाली एक उपमा बता रहा हूँ। ब्राह्मण लोग यश के लिये यूप निर्माण करने के उदेश्य से वृक्ष का छेदन करते हैं। उस वृक्ष को काटकर बाहर निकालने में जो-जो पार्श्ववर्ती वृक्ष बाधक होते हैं उन्हें भी निश्चय ही वे काट डालते हैं। वे वृक्ष भी गिरते समय दूसरे-दूसरे वनस्पतियों को भी प्राय: तोड़ ही डालते हैं। | + | अब मैं यहाँ [[धर्म]] के तत्त्व को प्रकाशित करने वाली एक उपमा बता रहा हूँ। [[ब्राह्मण]] लोग यश के लिये यूप निर्माण करने के उदेश्य से वृक्ष का छेदन करते हैं। उस वृक्ष को काटकर बाहर निकालने में जो-जो पार्श्ववर्ती वृक्ष बाधक होते हैं उन्हें भी निश्चय ही वे काट डालते हैं। वे वृक्ष भी गिरते समय दूसरे-दूसरे वनस्पतियों को भी प्राय: तोड़ ही डालते हैं। |
| style="vertical-align:bottom;"| | | style="vertical-align:bottom;"| |
14:32, 29 मार्च 2018 के समय का अवतरण
त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 27-41 का हिन्दी अनुवाद
विद्वान पुरुष क्षत्रिय को प्रजा का रक्षक और विनाशक भी मानते है। अत: क्षत्रियबन्धु को प्रजा की रक्षा करते हुए ही धन ग्रहण करना चाहिये। राजन! इस संसार में किसी की भी ऐसी वृत्ति नहीं है, जो हिंसा से शून्य हो। औरों की तो बात ही क्या है, वन में रहकर एकाकी विचरने वाले तपस्वी मुनि की भी वृत्ति सर्वथा हिंसारहित नहीं है। कुरुश्रेष्ठ! कोई भी ललाट में लिखी हुई वृत्ति का ही भरोसा करके जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता; अत: प्रजापालन की इच्छा रखने वाले राजा का भाग्य के भरोसे निर्वाह चलाना तो सर्वथा अशक्य है। इसलिये आपत्ति काल में राजा और राज्य की प्रजा दोनों को निरन्तर एक-दूसरे की रक्षा करनी चाहिये। यही सदा का धर्म है। जैसे राजा प्रजा पर संकट आ जाय तो राशि-राशि धन लुटाकर भी उसकी रक्षा करता है, उसी तरह राजा के ऊपर संकट पड़ने पर राष्ट्र की प्रजा को भी उसकी रक्षा करनी चाहिये। राजा भूख से पीड़ित होने-जीविका के लिये कष्ट पाने पर भी खजाना, राजदण्ड, सेना, मित्र तथा अन्य संचित साधनों को कभी राज्य से दूर न करे। धर्मज्ञ पुरुषों का कहना है कि मनुष्य को अपने भोजन के लिये संचित अन्न में से भी बीज को बचाकर रखना चाहिये। इस विषय में महामायावी शम्बरासुर का विचार भी ऐसा ही बताया गया है। जिसके राज्य की प्रजा तथा वहाँ आये हुए परदेशी मनुष्य भी जीविका के बिना कष्ट पा रहे हों उस राजा के जीवन को धिक्कार है। राजा की जड़ है सेना और खजाना। इनमे भी खजाना ही सेना की जड़ है। सेना सम्पूर्ण धर्मो की रक्षा का मूल कारण है और धर्म ही प्रजा की जड़ है। दूसरों को पीड़ा दिये बिना धन का संग्रह नहीं किया जा सकता है; और धन-संग्रह के बिना सेना का संग्रह कैसे हो सकता है? अत: आपत्ति काल में कोश या धनसंग्रह के लिये प्रजा को पीड़ा देकर भी राजा दोष का भागी नहीं हो सकता। जैसे यज्ञ कर्मों में यज्ञ के लिये वह कार्य भी किया जाता है जो करने योग्य नहीं हैं (कितु वह दोषयुक्त नहीं माना जाता)। उसी प्रकार आपत्ति काल में प्रजापीडन से राजा को दोष नहीं लगता है। आपत्ति काल में प्रजापीडन अर्थसंग्रहरूप प्रयोजन का साधक होने के कारण अर्थकारक होता है, इसके विपरीत उसे पीड़ा न देना ही अनर्थकारक हो जाता है। इसी प्रकार जो दूसरे अनर्थकारी (व्यय बढ़ाने वाले सैन्य-संग्रह आदि) कार्य हैं, वे भी युद्ध का संकट उपस्थित होने पर अर्थकारी (विजय साधक) सिद्ध होते हैं। बुद्धिमान पुरुष इस प्रकार बुद्धि से विचार करके कर्त्तव्य का निश्चय करे। जैसे अन्याय सामग्रियाँ यज्ञ की सिद्धि के लिये होती है, उत्तम यज्ञ किसी और ही प्रयोजन के लिये होता है, यज्ञ-सम्बन्धी अन्यान्य बातें भी किसी-न-किसी विशेष उदेश्य की सिद्धि के लिये ही होती हैं, तथा यह सब कुछ यज्ञ का साधन ही हैं। अब मैं यहाँ धर्म के तत्त्व को प्रकाशित करने वाली एक उपमा बता रहा हूँ। ब्राह्मण लोग यश के लिये यूप निर्माण करने के उदेश्य से वृक्ष का छेदन करते हैं। उस वृक्ष को काटकर बाहर निकालने में जो-जो पार्श्ववर्ती वृक्ष बाधक होते हैं उन्हें भी निश्चय ही वे काट डालते हैं। वे वृक्ष भी गिरते समय दूसरे-दूसरे वनस्पतियों को भी प्राय: तोड़ ही डालते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज