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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 33-44 श्लोक | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 33-44 श्लोक का हिन्दी अनुवाद</div> |
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− | + | गौतम बोले- 'तुम्हारे पिता द्युमत्सेन को जो सहसा नेत्रों की प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम नहीं जानते। सम्भवतः [[सावित्री]] बतला सकती है। सावित्री! मैं इसका रहस्य तुमसे सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम भूत और भविष्य सब कुछ जानती हो। मैं तुम्हें साक्षात् सावित्री देवी के समान तेजस्विनी जानता हूँ। राजा को सहसा नेत्रों की प्राप्ति हुई है, इसका कारण तुम जानती हो। सच-सच बताओ, यदि इसमें कुछ छिपाने की बात न हो, तो हमसे अवश्य कहो। | |
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− | + | सावित्री बोली- 'मुनीश्वरो! आप लोग जैसा समझते हैं, ठीक है। आप लोगों का संकल्प अन्यथा नहीं हो सकता। मेरे लिये कोई छिपाने की बात नहीं है। मैं सब घटनाएँ ठीक-ठीक बताती हूँ, सुनिये। | |
− | + | महात्मा नारद जी ने मुझसे मेरे पति की मृत्यु का हाल बताया था। वह मृत्यु दिवस आज ही आया था; इसलिये मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ती थी। जब वे सिर के दर्द से व्याकुल होकर सो गये, उस समय साक्षात् भगवान [[यमराज]] अपने सेवक के साथ पधारे। वे इन्हें बाँधकर दक्षिण दिशा की ओर ले चले। उस समय मैंने सत्य वचनों द्वारा उन भगवान यम की स्तुति की। तब उन्होंने मुझे पाँच वर दिये। उन वरों को आप मुझसे सुनिये। नेत्र तथा अपने राज्य की प्राप्ति- ये दो वर मेरे श्वसुर के लिये प्राप्त हुए हैं। इसके सिवा मैंने अपने पिता के लिये सौ पुत्र तथा अपने लिये भी सौ पुत्र होने के दो वर और पाये हैं। पाँचवें वर के रूप में मुझे मेरे पति [[सत्यवान]] चार सौ वर्षों की आयु लेकर प्राप्त हुए हैं। पति के जीवन की रक्षा के लिये ही मैंने यह व्रत किया था। इस प्रकार मैंने आप लोगों से विलम्ब से आने का कारण और उसका यथावत् वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है। मुझे जो यह महान् दुःख उठाना पड़ा है, उसका अन्तिम फल सुख ही हुआ है।' | |
− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के | + | ऋषि बोले- 'पतिव्रते! राजा द्युमत्सेन का कुल भाँति-भाँति की विपत्तियों से ग्रस्त होकर दुःख के अंधकारमय गढे में डूबा हुआ था; परंतु तुझ जैसी सुशीला, व्रतपरायणा और पवित्र आचरण वाली कुलीन वधू ने आकर इसका उद्धार कर दिया।' |
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+ | मार्कण्डेय जी कहते हैं- [[युधिष्ठिर]]! इस प्रकार वहाँ आये हुए महर्षियों ने स्त्रियों में श्रेष्ठ [[सावित्री]] की भूरि-भूरि प्रशंसा तथा आदर-सत्कार करके पुत्र सहित राजा द्युमत्सेन की अनुमति ले सुख और प्रसन्नता के साथ अपने-अपने घर को प्रस्थान किया। | ||
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+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
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11:27, 23 मार्च 2018 के समय का अवतरण
अष्टनवत्यधिकद्विशततमन (298) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)
महाभारत: वन पर्व: अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 33-44 श्लोक का हिन्दी अनुवाद
सावित्री बोली- 'मुनीश्वरो! आप लोग जैसा समझते हैं, ठीक है। आप लोगों का संकल्प अन्यथा नहीं हो सकता। मेरे लिये कोई छिपाने की बात नहीं है। मैं सब घटनाएँ ठीक-ठीक बताती हूँ, सुनिये। महात्मा नारद जी ने मुझसे मेरे पति की मृत्यु का हाल बताया था। वह मृत्यु दिवस आज ही आया था; इसलिये मैं इन्हें अकेला नहीं छोड़ती थी। जब वे सिर के दर्द से व्याकुल होकर सो गये, उस समय साक्षात् भगवान यमराज अपने सेवक के साथ पधारे। वे इन्हें बाँधकर दक्षिण दिशा की ओर ले चले। उस समय मैंने सत्य वचनों द्वारा उन भगवान यम की स्तुति की। तब उन्होंने मुझे पाँच वर दिये। उन वरों को आप मुझसे सुनिये। नेत्र तथा अपने राज्य की प्राप्ति- ये दो वर मेरे श्वसुर के लिये प्राप्त हुए हैं। इसके सिवा मैंने अपने पिता के लिये सौ पुत्र तथा अपने लिये भी सौ पुत्र होने के दो वर और पाये हैं। पाँचवें वर के रूप में मुझे मेरे पति सत्यवान चार सौ वर्षों की आयु लेकर प्राप्त हुए हैं। पति के जीवन की रक्षा के लिये ही मैंने यह व्रत किया था। इस प्रकार मैंने आप लोगों से विलम्ब से आने का कारण और उसका यथावत् वृत्तान्त विस्तारपूर्वक बताया है। मुझे जो यह महान् दुःख उठाना पड़ा है, उसका अन्तिम फल सुख ही हुआ है।' ऋषि बोले- 'पतिव्रते! राजा द्युमत्सेन का कुल भाँति-भाँति की विपत्तियों से ग्रस्त होकर दुःख के अंधकारमय गढे में डूबा हुआ था; परंतु तुझ जैसी सुशीला, व्रतपरायणा और पवित्र आचरण वाली कुलीन वधू ने आकर इसका उद्धार कर दिया।' मार्कण्डेय जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस प्रकार वहाँ आये हुए महर्षियों ने स्त्रियों में श्रेष्ठ सावित्री की भूरि-भूरि प्रशंसा तथा आदर-सत्कार करके पुत्र सहित राजा द्युमत्सेन की अनुमति ले सुख और प्रसन्नता के साथ अपने-अपने घर को प्रस्थान किया।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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