कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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[[चित्र:Prev.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 283 श्लोक 37-54]] | [[चित्र:Prev.png|link=महाभारत वन पर्व अध्याय 283 श्लोक 37-54]] | ||
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− | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद</ | + | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: वन पर्व: चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद<br /> |
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− | + | ;अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाकर लौटना तथा राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम</div> | |
− | + | मार्कण्डेय कहते हैं- [[युधिष्ठिर]]! [[लंका]] के उस वन में अन्न और जल का बहुत सुभीता था। फल और मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे; अतः वहीं सेना की छावनी डालकर [[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] विधिपूर्वक उसकी रक्षा करते रहे। इधर [[रावण]] [[लंका]] में शास्त्रोक्त प्रकार से बनी हुई युद्ध-सामग्री (मशीनगन आदि) का संग्रह करने लगा। लंका की चाहरदीवारी और नगर द्वार अत्यन्त सुदृढ़ थे; अतः स्वभाव से ही वह दुर्धर्ष थी। किसी भी आक्रमणकारी का वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। नगर के चारों ओर सात गहरी खाइयाँ थीं, जिनमें अगाध जल भरा था और उनमें मत्स्य-मगर आदि जल-जन्तु निवास करते थे। इन खाइयों में सब ओर खैर के खूँटे गढ़े हुए थे। मजबूत किवाड़र लगे थे और गोला बरसाने वाले यन्त्र (मशीनें) यथास्थान लगे थे। इन सब कारणों से इन खाइयों को पार करना बहुत कठिन था। विषणर सर्पों के समूह, सैनिक, सर्जरस (लाह) और धूल- इन सबसे संयुक्त और सुरक्षित होने के कारण भी वे खाइयाँ दुर्गम थीं। मुसल, अलात (बनैठी), बाण, तोमर, तलवार, फरसे, मोम के मुद्गर तथा तोप आदि अस्त्र-शस्त्रों के कारण भी वे खाइयाँ दुर्लंघ्य थीं। | |
− | + | नगर के सभी दरवाजों पर छिपकर बैठने के लिये बुर्ज बने हुए थे। ये स्थावर गुल्म कहलाते थे और घूम-फिरकर रक्षा करने वाले जो सैनिक नियुक्त किये गये थे, वे जंगम गुल्म कहे जाते थे। इनमें अधिकांश पैदल और बहुत-से हाथी सवार तथा घुड़सवार भी थे। ([[राम|श्रीरामचन्द्र जी]] की आज्ञा से) महाबली अंगद दूत बनकर लंकापुरी के द्वार पर आये। राक्षसराज [[रावण]] को उनके आगमन की सूचना दी गयी। फिर अनुमति मिलने पर उन्होंने निर्भय होकर पुरी में प्रवेश किया। अनेक करोड़ राक्षसों के बीच में जाते हुए अंगद मेघों की घटा से घिरे हुए सूर्यदेव के समान सुशोभित हो रहे थे। मन्त्रियों से झिरकर बैठे हुए पुलत्स्यनन्दन रावण के पास पहुँचकर कुशल वक्ता [[अंगद]] ने रावण को संबोधित करके श्रीरामचन्द्र जी का संदेश इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'राजन्! कोसल देश के महाराज महायशस्वी श्रीरामचन्द्र जी ने तुमसे कहने के लिये जो समयोचित संदेश भेजा है, उसे सुनो और तदनुसार कार्य करो। | |
− | | | + | जो राजा अपने मन को काबू में न रखकर अन्यान्य में तत्पर रहता है, उसका आश्रय लेकर उसके अधीन रहने वाले नगर और देश भी अनीतिपरायण होकर नष्ट हो जाते हैं। [[सीता]] का बलपूर्वक अपहरण करके मेरा अपराध तो अकेले तुमने किया है, परंतु इसके कारण अन्य निर्दोष लोग भी मारे जायेंगे। तुमने बल और अहंकार से उन्मत्त होकर पहले जिन वनवासी ऋषियों की हत्या की, देवताओं का अपमान किया, राजर्षियों के प्राण लिये तथा रोती-बिलखती अबलाओं का भी अपहरण किया था, उन सब अत्याचारों का फल अब तुम्हें प्राप्त होने वाला है। मैं मन्त्रियों सहित तुम्हें मार डालूँगा। साहस हो तो युद्ध करो और पौरुष का परिचय दो। निशाचर! यद्यपि मैं मनुष्य हूँ, तो भी मेरे धनुष का बल देखना।' |
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13:57, 19 मार्च 2018 के समय का अवतरण
चतुरशीत्यधिकद्वशततम (284) अध्याय: वन पर्व (रामोपाख्यान पर्व)
महाभारत: वन पर्व: चतुरशीत्यधिकद्वशततम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
मार्कण्डेय कहते हैं- युधिष्ठिर! लंका के उस वन में अन्न और जल का बहुत सुभीता था। फल और मूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे; अतः वहीं सेना की छावनी डालकर श्रीरामचन्द्र जी विधिपूर्वक उसकी रक्षा करते रहे। इधर रावण लंका में शास्त्रोक्त प्रकार से बनी हुई युद्ध-सामग्री (मशीनगन आदि) का संग्रह करने लगा। लंका की चाहरदीवारी और नगर द्वार अत्यन्त सुदृढ़ थे; अतः स्वभाव से ही वह दुर्धर्ष थी। किसी भी आक्रमणकारी का वहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन था। नगर के चारों ओर सात गहरी खाइयाँ थीं, जिनमें अगाध जल भरा था और उनमें मत्स्य-मगर आदि जल-जन्तु निवास करते थे। इन खाइयों में सब ओर खैर के खूँटे गढ़े हुए थे। मजबूत किवाड़र लगे थे और गोला बरसाने वाले यन्त्र (मशीनें) यथास्थान लगे थे। इन सब कारणों से इन खाइयों को पार करना बहुत कठिन था। विषणर सर्पों के समूह, सैनिक, सर्जरस (लाह) और धूल- इन सबसे संयुक्त और सुरक्षित होने के कारण भी वे खाइयाँ दुर्गम थीं। मुसल, अलात (बनैठी), बाण, तोमर, तलवार, फरसे, मोम के मुद्गर तथा तोप आदि अस्त्र-शस्त्रों के कारण भी वे खाइयाँ दुर्लंघ्य थीं। नगर के सभी दरवाजों पर छिपकर बैठने के लिये बुर्ज बने हुए थे। ये स्थावर गुल्म कहलाते थे और घूम-फिरकर रक्षा करने वाले जो सैनिक नियुक्त किये गये थे, वे जंगम गुल्म कहे जाते थे। इनमें अधिकांश पैदल और बहुत-से हाथी सवार तथा घुड़सवार भी थे। (श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से) महाबली अंगद दूत बनकर लंकापुरी के द्वार पर आये। राक्षसराज रावण को उनके आगमन की सूचना दी गयी। फिर अनुमति मिलने पर उन्होंने निर्भय होकर पुरी में प्रवेश किया। अनेक करोड़ राक्षसों के बीच में जाते हुए अंगद मेघों की घटा से घिरे हुए सूर्यदेव के समान सुशोभित हो रहे थे। मन्त्रियों से झिरकर बैठे हुए पुलत्स्यनन्दन रावण के पास पहुँचकर कुशल वक्ता अंगद ने रावण को संबोधित करके श्रीरामचन्द्र जी का संदेश इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'राजन्! कोसल देश के महाराज महायशस्वी श्रीरामचन्द्र जी ने तुमसे कहने के लिये जो समयोचित संदेश भेजा है, उसे सुनो और तदनुसार कार्य करो। जो राजा अपने मन को काबू में न रखकर अन्यान्य में तत्पर रहता है, उसका आश्रय लेकर उसके अधीन रहने वाले नगर और देश भी अनीतिपरायण होकर नष्ट हो जाते हैं। सीता का बलपूर्वक अपहरण करके मेरा अपराध तो अकेले तुमने किया है, परंतु इसके कारण अन्य निर्दोष लोग भी मारे जायेंगे। तुमने बल और अहंकार से उन्मत्त होकर पहले जिन वनवासी ऋषियों की हत्या की, देवताओं का अपमान किया, राजर्षियों के प्राण लिये तथा रोती-बिलखती अबलाओं का भी अपहरण किया था, उन सब अत्याचारों का फल अब तुम्हें प्राप्त होने वाला है। मैं मन्त्रियों सहित तुम्हें मार डालूँगा। साहस हो तो युद्ध करो और पौरुष का परिचय दो। निशाचर! यद्यपि मैं मनुष्य हूँ, तो भी मेरे धनुष का बल देखना।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
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