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वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय कुन्ती के उन महारथी पुत्रों को मत्स्यराज के नगर मे छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन् ! [[यज्ञसेन]]-कुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा योग्य थी, रानी सुदेष्णा की शुश्रुषा करती हुई बड़े कष्ट से वहाँ रहती थी। सुदेष्णा के महल में पूर्वोक्तरूप से सेवा करती हुई पान्चाली ने महारानी तथा अनतःपुर की अन्य सित्रयों को पूर्ण प्रसन्न कर लिया। जब वह वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तबकी बात है; एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा। | वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय कुन्ती के उन महारथी पुत्रों को मत्स्यराज के नगर मे छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन् ! [[यज्ञसेन]]-कुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा योग्य थी, रानी सुदेष्णा की शुश्रुषा करती हुई बड़े कष्ट से वहाँ रहती थी। सुदेष्णा के महल में पूर्वोक्तरूप से सेवा करती हुई पान्चाली ने महारानी तथा अनतःपुर की अन्य सित्रयों को पूर्ण प्रसन्न कर लिया। जब वह वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तबकी बात है; एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा। | ||
− | राजमहल में देवांगना की भाँति विचरती हुई देवकन्या के समान कान्ति वाली द्रौपदी को देखकर कीचक कामबाण से अत्यन्त | + | राजमहल में देवांगना की भाँति विचरती हुई देवकन्या के समान कान्ति वाली द्रौपदी को देखकर कीचक कामबाण से अत्यन्त पीड़ित हो उसे चाहने लगा । कामवासना की आग में जलता हुआ सेनापति कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णा के पास गया और हँसता हुआ सा उससे इस प्रकार बोला- ‘सुदेष्णे ! यह सुन्दरी जो अपने रूप से मुझे अत्यन्त उन्मत्त सा किये देती है, पहले कभी राजा विराट के इस महल में मेरे द्वारा नहीं देखी गयी थी। यह भामिनी अपनी दिव्य गंध से मेरे लिये मदिरा सी मादक हो रही है।‘शुभे ! यह कौन है , इसका रूप देवांगना के समान है। यह मेरे हृदय में समा गयी है। शोभने ! मुझे बताओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँ से आयी है ? यह मेरे मन को मथकर मुझे वश में किये लेती है। मेरे इस रोग की औषधि इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई नहीं जान पड़ती। ‘अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है कि यह सुन्दरी तुम्हारे यहाँ दासी का काम कर रही है। |
मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुमहारे यहाँ जो काम करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गुहस्वामिनी होकर मुझपर और मेरे पास जो कुछ है, उस पर भी एकछत्र शासन करे । ‘मेरे घर में बहुत से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत से सेवा करने वाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेय की उसमें अधिकता है। देखने में भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवन में चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’। तदनन्तर रानी सुदेष्णा की सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वन में कोई सियार किसी सिंह की कन्या को फुसला रहा हो। | मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुमहारे यहाँ जो काम करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गुहस्वामिनी होकर मुझपर और मेरे पास जो कुछ है, उस पर भी एकछत्र शासन करे । ‘मेरे घर में बहुत से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत से सेवा करने वाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेय की उसमें अधिकता है। देखने में भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवन में चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’। तदनन्तर रानी सुदेष्णा की सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वन में कोई सियार किसी सिंह की कन्या को फुसला रहा हो। |
01:15, 29 अप्रॅल 2016 का अवतरण
चतुर्दशम (14) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवधपर्व)
महाभारत: विराट पर्व चतुर्दशम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
कीचक का द्रौपदी पर आसक्त हो उससे प्रणयाचना करना और द्रौपदी का उसे फटकारना वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! उस समय कुन्ती के उन महारथी पुत्रों को मत्स्यराज के नगर मे छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन् ! यज्ञसेन-कुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा योग्य थी, रानी सुदेष्णा की शुश्रुषा करती हुई बड़े कष्ट से वहाँ रहती थी। सुदेष्णा के महल में पूर्वोक्तरूप से सेवा करती हुई पान्चाली ने महारानी तथा अनतःपुर की अन्य सित्रयों को पूर्ण प्रसन्न कर लिया। जब वह वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तबकी बात है; एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा। राजमहल में देवांगना की भाँति विचरती हुई देवकन्या के समान कान्ति वाली द्रौपदी को देखकर कीचक कामबाण से अत्यन्त पीड़ित हो उसे चाहने लगा । कामवासना की आग में जलता हुआ सेनापति कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णा के पास गया और हँसता हुआ सा उससे इस प्रकार बोला- ‘सुदेष्णे ! यह सुन्दरी जो अपने रूप से मुझे अत्यन्त उन्मत्त सा किये देती है, पहले कभी राजा विराट के इस महल में मेरे द्वारा नहीं देखी गयी थी। यह भामिनी अपनी दिव्य गंध से मेरे लिये मदिरा सी मादक हो रही है।‘शुभे ! यह कौन है , इसका रूप देवांगना के समान है। यह मेरे हृदय में समा गयी है। शोभने ! मुझे बताओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँ से आयी है ? यह मेरे मन को मथकर मुझे वश में किये लेती है। मेरे इस रोग की औषधि इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई नहीं जान पड़ती। ‘अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है कि यह सुन्दरी तुम्हारे यहाँ दासी का काम कर रही है। मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुमहारे यहाँ जो काम करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गुहस्वामिनी होकर मुझपर और मेरे पास जो कुछ है, उस पर भी एकछत्र शासन करे । ‘मेरे घर में बहुत से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत से सेवा करने वाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेय की उसमें अधिकता है। देखने में भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवन में चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’। तदनन्तर रानी सुदेष्णा की सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वन में कोई सियार किसी सिंह की कन्या को फुसला रहा हो। (उसने द्रौपदी से पूछा) कल्याणि ! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो ? अथवा सुमुखि ! तुम कहाँ से इस विराट नगर में आयी हो ? शोभने ! ये सब बातें मुझे सच-सच बताओ।। ‘तुम्हारा यह श्रेष्ठ और सुन्दर रूप, यह दिव्य कान्ति और यह सुकुमारता संसार में सबसे उत्तम है और तुम्हारा निर्मल मुख तो अपनी छवि से निष्कलंक चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहा है। ‘सुन्दर भौहों वाली सर्वांगसुन्दरी ! तुम्हारे ये उत्तम और विशाल नेत्र कमलदल के समान सुशोभित हैं। तुम्हारी वाणी क्या है; कोकिल की कूक है। ‘सुश्रोणि ! अनिन्दिते ! जैसी तुम हो, ऐसे मनोहर रूप वाली होई दूसरी स्त्री इस पृथ्वी पर मैंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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