संत: (महाभारत संदर्भ) 2

  • संतो धर्ममाहु: प्रधानम्।[1]

संत धर्म को ही प्रधान मानते हैं।

  • संतस्त्वेवाप्यमित्रेषु दयां प्राप्तेषु कुर्वते।[2]

सज्जन तो अपनी शरण में आये हुये शत्रुओं पर भी दया करते हैं।

  • आत्मन्यपि न विश्वासस्तथा भवति सत्सु य:।[3]

ऋजु को अपने आप पर भी उतना विश्वास नहीं है जितना कि सन्तो पर

  • सत्सु विशेषेण सर्व प्रणयमिच्छति।[4]

सब लोग संतों से विशेष प्रेम करना चाहते हैं।

  • सत्सु विशेषेण विश्वासं कुरुते जन:।[5]

संतो पर सब विशेष करके विश्वास करते हैं।

  • सतां सदा शाश्वतधर्मवृत्ति:।[6]

सन्तो की चित्तवृति सदा धर्म में लगी रहती है।

  • सन्तो न सीदंति न च व्यथंति।[7]

संत कभी उदास या दु:खी नहीं होते।

  • सद्भ्यो भयं नानुवर्तंति संत:।[8]

सज्जन संतो से भय नहीं मानते हैं।

  • संत: परार्थं कुर्वाणा नावेक्षंति परस्परम्।[9]

संत परोपकार करते हुये एक दूसरे की ओर नहीं देखते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 297.24
  2. वनपर्व महाभारत 297.36
  3. वनपर्व महाभारत 297.42
  4. वनपर्व महाभारत 297.42
  5. वनपर्व महाभारत 297.43
  6. वनपर्व महाभारत 297.47
  7. वनपर्व महाभारत 297.47
  8. वनपर्व महाभारत 297.47
  9. वनपर्व महाभारत 297.49

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