- दृष्टे फले राजन् प्रयत्नं कर्तुमर्हसि।[1]
राजन्! फल दिखाई दे रहा है तुम्हें इसे पाने का प्रयंत्न करना चाहिये।
- नायमफलो धर्मो नाधर्मोऽफलवानिति।[2]
ना धर्म निष्फल है और ना ही अधर्मं
- दृश्यंतेऽपि हि विद्यानां फलानि तपसां तथा।[3]
विद्या और तपस्या के फल देखे जाते हैं।
- फलं कर्म च निर्हेतु न कश्चित् सम्प्रवर्तते।[4]
ऐसा कर्म कोई नहीं करता जिसका कोई फल और कारण नहीं हो।
- आत्मा फलति कर्माणि नाश्रमो धर्मकारणम्।[5]
जैसा कर्म हो वैसा ही फल मिलता है, जिस आश्रम में भी मनुष्य रहे।
- निरामिषा न शोचंति।[6]
जो फल की इच्छा नहीं रखते वे शोक भी नहीं करते।
- न बीजेन विना फलम्।[7]
बीज के बिना फल नहीं होता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 119.25
- ↑ वनपर्व महाभारत 31.31
- ↑ वनपर्व महाभारत 31.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 87.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 111.13
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.21
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.5
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज