- न बुद्धिक्षात् किंचिदतिक्रामेत् प्रयोजनम्।[1]
बुद्धि की अल्पता के कारण किसी कर्म को न बिगड़ने दो।
- मनसार्थान् विनिश्चत्य पश्चात् प्राप्नोति कर्मणा।[2]
ऋजु मन से प्रयोजन का निश्चय करके पश्चात् उसे कर्म से पाता है।
- अनर्थकेषु को भाव: पुरुषस्य विजानत:।[3]
बुद्धिमान् मनुष्य अनर्थक विषयों के लिये क्यों आग्रह करे।
- अर्थानां च पुनर्द्वैधे नित्यं भवति संशय:।[4]
जिन विषयों में दुविधा होती है उनमें सदा संशय बना रहता है।
- अन्यथा चिंतितो ह्मर्थ: पुनर्भवति सोऽन्यथा।[5]
किसी विषय में सोचते कुछ और ही हैं तथा होता कुछ और ही है।
- निमग्नं पुनुरुद्वर।[6]
बिगड़ी को फिर बनाओ।
- यथाचार्थपति: कृत्यं पश्यते न तथेतर:।[7]
व्यक्ति स्वयं अपने काम का जितना ध्यान रख सकता है उतना दूसरा नहीं।
- तुल्याश्मकाञ्चनो यश्च स कृतार्थ:।[8]
पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखने वाला कृतार्थ है।
- न कर्मणाप्नोत्यनवाप्यमर्थम्।[9]
जो वस्तु पाने योग्य नहीं है उसे मनुष्य कर्म करके भी नहीं पा सकता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 139.84
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.25
- ↑ वनपर्व महाभारत 149.39
- ↑ विराटपर्व महाभारत 47.7
- ↑ विराटपर्व महाभारत 47.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 132.32
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 5.3
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 17.12
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 167.48
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