प्रयोजन (महाभारत संदर्भ)

  • न बुद्धिक्षात् किंचिदतिक्रामेत् प्रयोजनम्।[1]

बुद्धि की अल्पता के कारण किसी कर्म को न बिगड़ने दो।

  • मनसार्थान् विनिश्चत्य पश्चात् प्राप्नोति कर्मणा।[2]

ऋजु मन से प्रयोजन का निश्चय करके पश्चात् उसे कर्म से पाता है।

  • अनर्थकेषु को भाव: पुरुषस्य विजानत:।[3]

बुद्धिमान् मनुष्य अनर्थक विषयों के लिये क्यों आग्रह करे।

  • अर्थानां च पुनर्द्वैधे नित्यं भवति संशय:।[4]

जिन विषयों में दुविधा होती है उनमें सदा संशय बना रहता है।

  • अन्यथा चिंतितो ह्मर्थ: पुनर्भवति सोऽन्यथा।[5]

किसी विषय में सोचते कुछ और ही हैं तथा होता कुछ और ही है।

  • निमग्नं पुनुरुद्वर।[6]

बिगड़ी को फिर बनाओ।

  • यथाचार्थपति: कृत्यं पश्यते न तथेतर:।[7]

व्यक्ति स्वयं अपने काम का जितना ध्यान रख सकता है उतना दूसरा नहीं।

  • तुल्याश्मकाञ्चनो यश्च स कृतार्थ:।[8]

पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखने वाला कृतार्थ है।

  • न कर्मणाप्नोत्यनवाप्यमर्थम्।[9]

जो वस्तु पाने योग्य नहीं है उसे मनुष्य कर्म करके भी नहीं पा सकता।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 139.84
  2. वनपर्व महाभारत 32.25
  3. वनपर्व महाभारत 149.39
  4. विराटपर्व महाभारत 47.7
  5. विराटपर्व महाभारत 47.7
  6. उद्योगपर्व महाभारत 132.32
  7. द्रोणपर्व महाभारत 5.3
  8. शांतिपर्व महाभारत 17.12
  9. शांतिपर्व महाभारत 167.48

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः