- नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत।[1]
आर्य कभी कठोर वचन नहीं बोलते हैं और ना ही छल करते हैं।
- वृत्तेन हि भवत्यार्यो न धनेन न विद्यया।[2]
मनुष्य सदाचार से ही आर्य होता धन या विद्या से नहीं।
- आशाभंगं न कुर्वन्ति भक्तस्यार्या: कथञ्चं। [3]
आर्य अपने भक्त की आशा को कभी भंग नहीं करते हैं।
- आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्मं।[4]
आर्य के लिये अच्छा कर्म करना सरल है।
- अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि।[5]
संसार में आर्य के द्वारा नीच कर्म का किया जाना अत्यंत कठिन है।
- आर्येण हि न वक्तव्या कदाचित् स्तुतिरात्मन:।[6]
आर्य को कभी अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये।
- यदार्यजनविद्विष्टं कर्म तन्नाचरेद् बुध:।[7]
बुद्धिमान् उस कर्म को न करे जिसको आर्यजन अनुचित समझते हों।
- लोको ह्यार्यगुणानेव भूयिष्ठं तु प्रशंसति।[8]
आर्य के गुणों की ही लोग अधिक प्रशंसा करते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 59.11
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 90.53
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 33.9
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 143.10
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 143.10
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 195.21
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 94.10
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 122.2
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