शिष्य (महाभारत संदर्भ)

  • शिष्यस्यासिष्यवृत्तेस्तु न क्षंतव्यं बुभूषता।[1]

शिष्य के अनुचित व्यवहार को कल्याण का इच्छुक गुरु क्षमा न करे।

  • पुत्रादनंतरं शिष्य इति धर्मविदो विदु:।[2]

धार्मिक जन पुत्र के बाद शिष्य को ही प्रिय मानते हैं।

  • गुरुं शिष्यो नित्यमभिवादयीत।[3]

शिष्य गुरु का नित्य अभिवादन करे।

  • न नियोज्याश्च व: शिष्या अनियोगे महाभये।[4]

अपने शिष्यों को अनुचित और महान् भयंकर कार्य में नहीं लगाना चाहिये।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 79.9
  2. विराटपर्व महाभारत 50.21
  3. उद्योगपर्व महाभारत 44.10
  4. शांतिपर्व महाभारत 327.47

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