चिन्ता (महाभारत संदर्भ)

  • चिन्ता बहुतरी तृणात्।[1]

चिन्ता की गिनती तिनकों से भी अधिक है।

  • अभिध्या वै प्रथमं हंति लोकम्।[2]

पहले तो लोगों को चिन्ता ही मार लेती है।

  • यद् गतमेवेदं शेषं चिंतय्।[3]

जो गया सो गया जो शेष है उसकी चिन्ता करो।

  • कुतो मामाश्रयेद् दोष इति नित्यं विचिंतयेत्।[4]

सदा विचार करते रहना चाहिये कि किस कारण मुझ पर दोष आता है।

  • नापध्यायेन्न स्पृहयेन्नाबंद्ध चिंतयेदसत्।[5]

किसी का अहित न सोचें, असम्भव वस्तु की कामना और चिंतन न करें

  • यस्मिन् न शक्यते कर्तुं यत्नस्तन्नानुचिन्तयेत्।[6]

जो कार्य किसी यत्न से न हो सकता हो उसकी चिंता ही छोड़ दे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 313.60
  2. उद्योगपर्व महाभारत 42.11
  3. द्रोणपर्व महाभारत 130.11
  4. शांतिपर्व महाभारत 89.14
  5. शांतिपर्व महाभारत 215.8
  6. शांतिपर्व महाभारत 330.11

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः