- अनिर्वेद: श्रियो मूलं लाभस्य च शुभस्य च।[1]
उत्साह ही श्री, लाभ और कल्याण का मूल है।
- व्यायामेन परीप्सस्व जीवितम्।[2]
अपनी जीविका परिश्रम से चलाओ।
- पुरुषार्थमभिप्रेतं समाहर्तुमिहर्हसि।[3]
संसार में अभीष्ट पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये।
- धिक् पौरुषमनर्थकम्।[4]
निष्फल परिश्रम को धिक्कार है।
- प्राज्ञा: पुरुषकारेषु वर्तते दाक्ष्यमाश्रिता:।[5]
विद्वान् कुशलता का आश्रय लेकर परिश्रम में ही लगे रहते हैं।
- पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति।[6]
परिश्रम के बिना जो भाग्य में होता है वह भी नहीं मिलता।
- सर्वं पुरुषकारेण मानुष्याद् देवतां गत:।[7]
सभी देवता मनुष्य जन्म में परिश्रम करके ही देवता बने हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.57
- ↑ विराटपर्व महाभारत 69.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 135.33
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 135.1
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 2.8
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.7
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.14
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