- सत्यं पुत्रशताद् वरम्।[1]
सौ पुत्रों से अच्छा सत्य बोलना है। (पुत्रों के लिये भी असत्य न बोलें।)
- राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च सर्वं न सत्यस्य कलामपैति।[2]
राज्य, पुत्र, यश और धन सभी मिलकर सत्य के अंश के समान नहीं हैं।
- स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात् सत्यं न लोपयेत्।[3]
सत्य ही धर्म का आधार है इसलिये सत्य का त्याग न करें।
- सत्यस्य वचनं साधु सर्वं सत्ये प्रतिष्ठिम्।[4]
सत्य बोलना अच्छा है, सत्य में ही सबकुछ प्रतिष्ठित है।
- न पावनतमं किचिंत् सत्यादध्यगमम् क्वचित्।[5]
सत्य से बढकर पवित्र कहीं कुछ मुझे नहीं मिला।
- नास्ति सत्यसमं तप:।[6]
सत्य के समान कोई तप नहीं है।
- अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।[7]
हजार अश्वमेध यज्ञ करने से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
- सत्यमाहु: परो धर्मस्तस्मात् सत्यं न लङ्घयेत्।[8]
सत्य को परम धर्म कहा गया है इसलिये सत्य को कभी न छोड़े।
- मुनय: सत्यशपथा:।[9]
मुनि सत्य की शपथ लेते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 74.102
- ↑ वनपर्व महाभारत 34.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 259.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 299.30
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.6
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 75.29
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 75.31
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 75.32
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