सत्य की महिमा (महाभारत संदर्भ)

  • सत्यं पुत्रशताद् वरम्।[1]

सौ पुत्रों से अच्छा सत्य बोलना है। (पुत्रों के लिये भी असत्य न बोलें।)

  • राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च सर्वं न सत्यस्य कलामपैति।[2]

राज्य, पुत्र, यश और धन सभी मिलकर सत्य के अंश के समान नहीं हैं।

  • स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात् सत्यं न लोपयेत्।[3]

सत्य ही धर्म का आधार है इसलिये सत्य का त्याग न करें।

  • सत्यस्य वचनं साधु सर्वं सत्ये प्रतिष्ठिम्।[4]

सत्य बोलना अच्छा है, सत्य में ही सबकुछ प्रतिष्ठित है।

  • न पावनतमं किचिंत् सत्यादध्यगमम् क्वचित्।[5]

सत्य से बढकर पवित्र कहीं कुछ मुझे नहीं मिला।

  • नास्ति सत्यसमं तप:।[6]

सत्य के समान कोई तप नहीं है।

  • अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।[7]

हजार अश्वमेध यज्ञ करने से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।

  • सत्यमाहु: परो धर्मस्तस्मात् सत्यं न लङ्घयेत्।[8]

सत्य को परम धर्म कहा गया है इसलिये सत्य को कभी न छोड़े।

  • मुनय: सत्यशपथा:।[9]

मुनि सत्य की शपथ लेते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 74.102
  2. वनपर्व महाभारत 34.22
  3. शांतिपर्व महाभारत 162.24
  4. शांतिपर्व महाभारत 259.10
  5. शांतिपर्व महाभारत 299.30
  6. शांतिपर्व महाभारत 329.6
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 75.29
  8. अनुशासनपर्व महाभारत 75.31
  9. अनुशासनपर्व महाभारत 75.32

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