- द्वेष्टा ह्मसुखमादत्ते यथैव निधनं तथा।[1]
द्वेष करने वाला मनुष्य मृत्यु के समान कष्ट पाता है।
- अद्विषन्तं कथं द्विश्यात्।[2]
जो द्वेष नहीं करता उसके साथ क्यों द्वोष करें
- द्वेषो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डित:।[3]
जिससे द्वेष हो वह न साधु, न बुद्धिमान् और न विद्वान् ही लगता है।
- प्रद्विष्ट्स्य कुत: श्रेय:।[4]
जिससे सभी द्वेष करते हों उसका कल्याण कैसे हो सकता है?
- द्वेषो भवति भूतानामुग्र:।[5]
कठोर मनुष्य प्राणियों के द्वेष का पात्र बन जाता है।
- लुब्धानां शुचयों द्वेष्या: कातराणां तरस्विन:।[6]
लोभी निर्लोभ लोगों से और भीरू बलवानों से द्वेष करते हैं।
- मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या दिरिद्राणां महाधना।[7]
मूर्ख विद्वानों से और निर्धन धनवानों से द्वेष करते हैं।
- द्वेषो भवति कारणात्।[8]
ऋजु किसी कारण से ही द्वेष का पात्र बनता है। (अकारण नहीं)
- आक्रोष्टा क्रध्यते राजंस्तथा द्वेषत्वमाप्नुते।[9]
राजन्! कोसने वाला दूसरों के क्रोध और द्वेष का पात्र बनता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत 54.1
- ↑ सभापर्व महाभारत 54.2
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 87.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 102.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 111.61
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 111.62
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.151
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 116.26
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