- गुरुनभ्युपगच्छंति यशसोऽर्थाय। [1]
यश के लिये लोग गुरु की शरण में जाते हैं।
- स्वकर्मनरतो यो हि स यश: प्राप्नुयान्महत्। [2]
जो अपने कर्म में लगा रहता है वह महान् यश प्राप्त करता है।
- युक्तं हि यशसा युक्तं मरणं लोकसम्मतम्। [3]
यश के साथ मृत्यु हो तो वह संसार में सम्मानित मानी जाती है।
- हंति यश: कदर्यता। [4]
कृपणता (कंजूसी) यश को नष्ट कर देती है।
- सुह्रदां वचने तिष्ठन् यश: प्राप्स्यसि। [5]
सुह्रदां के वचन मानोगे तो यश प्राप्त करोगे।
- गोपायस्व स्वं यश:। [6]
अपने यश की रक्षा करो।
- उत्तिष्ठ यशो लभस्व। [7]
यश प्राप्ति के लिये खड़े हो।
- प्रवृत्तधर्मस्य यशोऽभिवर्धते। [8]
धर्म का पालन करने वाले का यश बढ़ता है।
- प्रेत्य चेह च धर्मात्मा सम्प्राप्नोति महद्यश:। [9]
इस लोक और परलोक में धर्मात्मा महान् यश पाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत123.12
- ↑ वनपर्व महाभारत208.29
- ↑ वनपर्व महाभारत300.28
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत40.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत129.44
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत36.73
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत35.33
- ↑ शांतिपर्व महाभारत28.57
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत62.17
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