संधि (महाभारत संदर्भ)

  • प्रजानां संधिमूलं हि शमं विद्धि।[1]

संधि में ही प्रजाओं की शान्ति समझो।

  • पापै: सह संधिं न कुर्यात्।[2]

दुर्जनों के साथ कभी मेल न करें।

  • हीयमानेन संधि: पर्येष्टव्य: समेन वा।[3]

अपना बल अल्प हो या समान हो तो संधि का प्रयास करना चाहिये।

  • संदधीत न चानार्यै:।[4]

संधि तो करें परंतु दुर्जनों से नहीं।

  • संधाताव्यं बुधौर्नित्यम्।[5]

विद्वानो के साथ सदा संधि करनी चाहिये।

  • अमित्रैरपि संधेय प्राणा रक्ष्या:।[6]

प्राणों की रक्षा के लिये शत्रुओं के साथ भी संधि कर लेनी चाहिये।

  • छिद्रांवेषी ह्यसंधेय:।[7]

दूसरों के दोष खोजने वाले के साथ मेल-जोल नहीं रखना चाहिये।

  • जन्मशीलगुणोपेता: संधेया:।[8]

उत्तम कुल, स्वभाव और गुणों वाले मनुष्यों से संधि करनी चाहोये।

  • नविद्येत संधिरथापि विग्रहो मृतैर्मत्यौरिति लोकेषु निष्ठा।[9]

मरे हुओं से निश्चय ही संसार में किसी का मेल या विरोध नहीं होता।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 29.29
  2. उद्योगपर्व महाभारत 34.70
  3. शल्यपर्व महाभारत 4.43
  4. शांतिपर्व महाभारत 70.5
  5. शांतिपर्व महाभारत 138.15
  6. शांतिपर्व महाभारत 138.15
  7. शांतिपर्व महाभारत 168.16
  8. शांतिपर्व महाभारत 168.26
  9. महाप्रास्थानिकपर्व महाभारत 3.15

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