लाभ (महाभारत संदर्भ)

  • न वृद्धिर्बहु मंतव्या या वृद्धि: क्षयमावहेत्।[1]

जो आगे जाकर हानि करे उस लाभ को अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिये।

  • क्षयोऽपि बहु मंतव्यो य: क्षयो वृद्धिमावहेत्।[2]

उस हानि को भी अच्छा मानना चाहिये जो आगे चल कर लाभ दे।

  • सर्वे लाभा: साभिमाना इति सत्यवती श्रुति:।[3]

सत्यवादी श्रुति यह कहती है कि सभी लाभों से अभिमान बढ़ता है।

  • न प्रहृष्येत लाभेषु नालाभेषु च चिन्तयेत्।[4]

लाभ में खुशी से फूलें नहीं और हानि में चिंता न करें।

  • लाभसमये स्थितिर्धर्मेऽपि शोभना।[5]

लाभ के समय में भी धर्म में निष्ठा रखना अच्छी बात है।

  • यथा कर्म तथा लाभ:।[6]

जैसा कर्म होता है वैसा ही लाभ होता है। (जैसी करनी वैसी भरनी)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उद्योगपर्व महाभारत 39.6
  2. उद्योगपर्व महाभारत 39.6
  3. शांतिपर्व महाभारत 180.10
  4. शांतिपर्व महाभारत 240.31
  5. शांतिपर्व महाभारत 259.2
  6. शांतिपर्व महाभारत 279.20

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