अधर्म (महाभारत संदर्भ)

  • अध्रर्मोंत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत्।[1]

निरंतर पाप करने की प्रवत्ति से सारा संसार नष्ट हो जायेगा।

  • धर्म यो बाधते धर्मों न स धर्म: कुधर्म तत्।[2]

जो धर्म दूसरे धर्म का बाधक है वह धर्म नहीं कुधर्म है।

  • अधर्मप्रवृत्तस्य गुणा नश्यंति साधव:।[3]

पाप में लगे रहने से अच्छे गुण नष्ट हो जाते हैं।

  • अधार्मिकीं तु मा बुद्धिं मौख्यार्त् कुर्वंतु केवलात्।[4]

केवल मूर्खता के कारण अपनी बुद्धि को पाप में न लगायें।

  • मिथ्थावृत्तान् मारयिष्यत्यधर्म:।[5]

पापियों को पाप ही मार डालेगा।

  • अधर्मो हि कृतस्तीव्र: कथं स्यादफलश्चिरम्।[6]

घोर पाप का फल मिलने में देर कैसे लग सकती है?

  • मा स्माधर्मेण लोभेनलिप्सेथास्त्वं धनागमम्।[7]

लोभ के कारण पाप के मार्ग से धन पाने की इच्छा मत करना।

  • दृश्यते हि धर्मरूपेणाधर्म प्राकृतश्चरन्।[8]

सामान्यजन धर्म जैसा दिखने वाला अधर्म करता हुआ देखा जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 37.20
  2. वनपर्व महाभारत 131.11
  3. वनपर्व महाभारत 210.9
  4. उद्योगपर्व महाभारत 21.14
  5. द्रोणपर्व महाभारत 54.42
  6. द्रोणपर्व महाभारत 72.63
  7. शांतिपर्व महाभारत 71.13
  8. शांतिपर्व महाभारत 260.6

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