- या वै विद्या साधयंतीह कर्म फलं विद्यते नेतरासाम्।[1]
जो विद्या कर्म करने में काम आती हैं उनका ही फल है औरों का नहीं।
- विद्या योगेन रक्ष्यते।[2]
योग से विद्या की रक्षा होती है। (योग = समाधि या योक्ति)
- विद्यैका परमा तृप्ति:।[3]
एक विद्या ही परम संतोष देती है।
- अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्याया: शत्रवस्त्रय:।[4]
सेवा न करना, शीघ्रता और आत्मप्रशंसा करना, विद्या के ये तीन शत्रु हैं।
- विद्यैवेह परा गति:।[5]
संसार में विद्या ही परम गति है।
- विद्यया तु प्रमुच्यते।[6]
विद्या से मुक्ति होती है।
- विद्यया तदवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति।[7]
ऋजु विद्या से उस पद को पा लेता है जिसे पाकर शोकमुक्त हो जाता है।
- नास्ति विद्यासमं फलम्।[8]
विद्या के समान कोई फल नहीं है।
- नापरीक्षितचारित्रे विद्या देया कथंचन।[9]
सदाचार की परीक्षा लिये बिना किसी को विद्या न दें।
- महदाप्नोति विद्यया।[10]
ऋजु विद्या से महान् परमात्मा को प्राप्त करता है।
- विद्यावृद्धान् सदैव त्वमुपासीथा:।[11]
सदा विद्वानों का संग करो।
- विद्यामयोऽयं पुरुषो न तु कर्ममय: स्मृत:।[12]
यह पुरुष ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 29.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.39
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 33.52
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 40.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 237.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 241.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 241.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 277.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 327.46
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 122.6
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 5.10
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 51.32
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