- प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।[1]
मन की प्रसन्नता होने पर इसके सभी दु:खों का अभाव हो जाता है।
- सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।[2]
आत्मबुद्धि के प्रसाद से मिलने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।
- प्रसादेन कृतकृत्यो भवेत्।[3]
मनुष्य कृपा से कृतार्थ हो जाता है।
- चित्तस्य हि प्रसादेन हंति कर्म शुभाशुभम्।[4]
ऋजु मन की निर्मलता से सारे शुभ और अशुभ कर्मो को नष्ट करता है।
- प्रज्ञामूलं हींद्रियाणां प्रसाद:।[5]
इंद्रियों की निर्मलता ही प्रज्ञा (बुद्धि) का मूल है।
- न च प्रसाद: सत्पुरुषेषु मोघ:।[6]
सन्तों की प्रसन्नता कभी व्यर्थ नहीं जाती।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 26.65
- ↑ [भीष्मपर्व महाभारत |भीष्मपर्व महाभारत 42.37]]
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 75.12
- ↑ वनपर्व महाभारत 213.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 286.11
- ↑ वनपर्व महाभारत 297.50
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