- आपत्सु यो धारयति धर्म धर्मविदुत्तम:।[1]
आपत्ति में भी धर्म का पालन करने वाला ही धर्मज्ञानियों में श्रेष्ठ है।
- दुर्लभा लोके नरा धर्मप्रदर्शका:।[2]
संसार में धर्म का मार्ग दिखाने वाले लोग दुर्लभ हैं।
- एको नरसहस्रेषु धर्मविद् विद्यते न वा।[3]
न जाने सहस्रों में भी कोई एक धर्म को जानने वाला है या नहीं।
- स्वार्थे सर्वे विमुह्मन्ति येऽपि धर्मविदो जना:।[4]
जो धर्म को जानते हैं वे भी स्वार्थ के चक्र में मोहित हो
- धर्मापेक्षी नरो नित्यं सर्वत्र लभते सुखम्। [5]
(अधर्म से) धर्म को अधिक महत्त्व देने वाला सदा सर्वत्र सुख पाता है।
- सत्यानृते विनिश्चत्य ततो भवति धर्मविद्।[6]
सत्य और असत्य का निर्णय करने के बाद ऋजु धर्मज्ञानी होता है।
- धर्माधर्मविशेषज्ञ: सर्वं तरति दुतरम्।[7]
धर्म और अधर्म का विशेषज्ञ सभी संकटो से पार हो जाता है
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 154.14
- ↑ वनपर्व महाभारत 215.14
- ↑ वनपर्व महाभारत 215.15
- ↑ विराटपर्व महाभारत 51.4
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 85.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 109.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 235.28
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