कार्य (महाभारत संदर्भ)

  • अनागतं हि बिध्येत यच्च कार्यं पुर: स्थितम्।[1]

जो कार्य सामने आने वाला है और जो सामने है दोनों को जान लें।

  • कर्तव्यमिति यत् कार्यं नाभिमानात् समाचरेत्।[2]

जो कार्य करना ही है उसे अभिमान रहित होकर करें।

  • प्रत्युपस्थितकालस्य कार्यस्यानंतरो भव।[3]

जो कार्य सामने है उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ।

  • यत् तु कार्यं भवेत् कार्यं कर्मणा तत् समाचार।[4]

जो कार्य करने योग्य उसे कर डालो।

  • अन्यथा चिंतितं कार्यमन्यथा तत्तु जायते।[5]

कार्य के विषय में सोचा कुछ और जाता है और हो कुछ और जाता है।

  • आत्मकार्यं च सर्वेषां गरीय:।[6]

अपना कार्य सभी के लिये महत्त्वपूर्ण होता है।

  • कुर्यात् कार्यमपीडया।[7]

कार्य तो करें परंतु शरीर को पीड़ा देकर नहीं।

  • कार्याणां गुरुतां प्राप्य नानृतं किंचिदाचरेत्।[8]

कार्यों की कठिनता को देखकर भी कभी अनुचित कार्य न करें।

  • सदा चापररात्रांते भवेत् कार्यार्थनिर्णय:।[9]

सदा सूर्योदय से पहले ही दिन भर का कार्यक्रम निश्चित कर लें।

  • चक्रवत् तात कार्याणां पर्यायो दृश्यते सदा।[10]

तात! कार्यो का क्रम सदा चक्र की भाँति चलता रहता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 139.84
  2. वनपर्व महाभारत 2.76
  3. विराटपर्व महाभारत 21.19
  4. द्रोणपर्व महाभारत 80.8
  5. कर्णपर्व महाभारत 9.20
  6. कर्णपर्व महाभारत 87.71
  7. शांतिपर्व महाभारत 70.5
  8. शांतिपर्व महाभारत 138.213
  9. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 5.34
  10. आश्वमेधिकपर्व महाभारत 5.36

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