दण्ड (महाभारत संदर्भ)

  • उद्वृवृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै।[1]

अनुचित व्यवहार करने वाले को राजा दण्ड देकर शासित करता है।

  • दण्डात् प्रतिभयं भूय: शांतिरुत्पद्यते तद।[2]

दण्ड से भय लगता है फिर भय से तत्काल शांति स्थापित होती है।

  • उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।[3]

उल्टे मार्ग परचलने वाले को दण्ड देना उचित होता है।

  • उग्रेण दण्डेन भृशमुद्विजते प्रजा:।[4]

कठोर दण्ड से प्रजा अत्यंत पीड़ित हो जाती है।

  • निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत्।[5]

मर्यादाहीन दुष्टों को दण्ड देना चाहिये।

  • मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा।[6]

संसार में जो मर्यादा में स्थापित की गई है उसी का नाम दण्ड है।

  • दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिद्ध्यन्त्युपक्रमा:।[7]

दण्ड व्यवस्था समुचित चल रही है तो सारे कार्य सफल हो जाते है।

  • दण्डश्चेन्न भवल्लाके विनश्येयुरिमा: प्रजा:।[8]

संसार में यदि दण्ड न हो तो सारी जनता नष्ट हो जाये।

  • भयाद् दण्डस्य नान्योन्यं घ्नन्ति।[9]

दण्ड के भय से ही मनुष्य एक दूसरे को नहीं मारते।

  • नादण्ड्यो विद्यते राज्ञो य: स्वधर्मे न तिष्ठति।[10]

जो अपने धर्म का पालन नहीं करते उन सबको राजा अवश्य दण्ड दे।

  • विभज्य दण्ड: कर्त्तव्योयो धर्मेण न यदृच्छया।[11]

न्याय- अन्याय का विचार करके ही दण्ड देना चाहिये अपने मन से नहीं

  • दुष्टानां निग्रहो दण्डो हिरण्यं बाह्मत: क्रिया।[12]

दुष्टों के दमन के लिये दण्ड देना उचित है धन संग्रह के लिये नहीं।

  • न मूलघात: कर्तव्यो नैष धर्म: सनातन:।[13]

(किसी को) समूल नष्ट न करें, ऐसा करना सनातन धर्म नहीं है।

  • अपि स्वल्पवधेनैव प्रायश्चित्तं विधीयते।[14]

अल्प दण्ड से भी प्रायश्चित हो जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 41.27
  2. आदिपर्व महाभारत 41.28
  3. आदिपर्व महाभारत 139.54
  4. सभापर्व महाभारत 5.45
  5. वनपर्व महाभारत 150.48
  6. शांतिपर्व महाभारत 15.10
  7. शांतिपर्व महाभारत 15.30
  8. शांतिपर्व महाभारत 15.30
  9. शांतिपर्व महाभारत 121.34
  10. शांतिपर्व महाभारत 122.40
  11. शांतिपर्व महाभारत 122.40
  12. शांतिपर्व महाभारत 122.40
  13. शांतिपर्व महाभारत 267.12
  14. शांतिपर्व महाभारत 267.12

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