सुहृद् (महाभारत संदर्भ)

  • सुहृदश्च प्रहृष्येरंस्तथा कुरु।[1]

जिस कर्म से मित्र प्रसन्न हो वही करो।

  • बंधूना सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गति: सदा।[2]

बंधुओं और मित्रों का तुम सदा आश्रय बनो।

  • तिष्ठते हि सुहृद् यत्र न बंधुस्तत्र तिष्ठते।[3]

जिस संकट में मित्र साथ देता है वहाँ भाई-बंधु नहीं ठहर सकते।

  • श्रोतव्यं हितकामानां सुहृदाम्।[4]

हित चाहने वाले मित्रों का वचन सुनना चाहिये।

  • न शर्म प्राप्स्यसे राजन्नुत्क्रम्यसुहृदांवच:।[5]

राजन्! हितैषी मनुष्यों की बात को न मानोगे तो सुख नहीं मिलेगा।

  • मा दीदरस्तवं सुहृद:।[6]

अपने आप को सुहृदों से दूर मत करो।

  • प्रतिष्ठा सुहृदां भव।[7]

सुहृदों के आश्रय दाता बनो।

  • आपद्गतं कश्चन यो विमोक्षयेत् स बांधव: स्नेहयुक्त: सुहृत्।[8]

संकट में पड़े हुए मनुष्य को जो छुड़ा दे वही स्नेही, बंधु और सुहृद् है।

  • सुहृद: प्रतिषेधंति पातकात्।[9]

हितैषी मित्र पाप कर्म से रोकते हैं।

  • दुर्लभो हि सुहृच्छ्रोता दुर्लभश्च हित: सुहृत्।[10]

हित की बात सुनने वाला और हित करने वाला सुहृद् दुर्लभ है।

  • सुहृद: फलसत्कारैरर्चयस्व यथार्हत:।[11]

मित्रों का फल और सत्कार द्वारा यथायोग्य सम्मान करो।

  • अनु त्वां तात जीवंतु मित्राणि सुहृदस्तथा।[12]

तात! तुम्हारे मित्र और हितैषी तुम्हारे आश्रय में जीवन निर्वाह करें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 103.22
  2. वनपर्व महाभारत 249.25
  3. उद्योगपर्व महाभारत 106.5
  4. उद्योगपर्व महाभारत 123.20
  5. उद्योगपर्व महाभारत 128.21
  6. उद्योगपर्व महाभारत 136.6
  7. द्रोणपर्व महाभारत 4.3
  8. कर्णपर्व महाभारत 68.24
  9. सौप्तिकपर्व महाभारत 5.7
  10. शांतिपर्व महाभारत 168.4
  11. अनुशासनपर्व महाभारत 166.12
  12. अनुशासनपर्व महाभारत 166.13

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