- सुहृदश्च प्रहृष्येरंस्तथा कुरु।[1]
जिस कर्म से मित्र प्रसन्न हो वही करो।
- बंधूना सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गति: सदा।[2]
बंधुओं और मित्रों का तुम सदा आश्रय बनो।
- तिष्ठते हि सुहृद् यत्र न बंधुस्तत्र तिष्ठते।[3]
जिस संकट में मित्र साथ देता है वहाँ भाई-बंधु नहीं ठहर सकते।
- श्रोतव्यं हितकामानां सुहृदाम्।[4]
हित चाहने वाले मित्रों का वचन सुनना चाहिये।
- न शर्म प्राप्स्यसे राजन्नुत्क्रम्यसुहृदांवच:।[5]
राजन्! हितैषी मनुष्यों की बात को न मानोगे तो सुख नहीं मिलेगा।
- मा दीदरस्तवं सुहृद:।[6]
अपने आप को सुहृदों से दूर मत करो।
- प्रतिष्ठा सुहृदां भव।[7]
सुहृदों के आश्रय दाता बनो।
- आपद्गतं कश्चन यो विमोक्षयेत् स बांधव: स्नेहयुक्त: सुहृत्।[8]
संकट में पड़े हुए मनुष्य को जो छुड़ा दे वही स्नेही, बंधु और सुहृद् है।
- सुहृद: प्रतिषेधंति पातकात्।[9]
हितैषी मित्र पाप कर्म से रोकते हैं।
- दुर्लभो हि सुहृच्छ्रोता दुर्लभश्च हित: सुहृत्।[10]
हित की बात सुनने वाला और हित करने वाला सुहृद् दुर्लभ है।
- सुहृद: फलसत्कारैरर्चयस्व यथार्हत:।[11]
मित्रों का फल और सत्कार द्वारा यथायोग्य सम्मान करो।
- अनु त्वां तात जीवंतु मित्राणि सुहृदस्तथा।[12]
तात! तुम्हारे मित्र और हितैषी तुम्हारे आश्रय में जीवन निर्वाह करें।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 103.22
- ↑ वनपर्व महाभारत 249.25
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 106.5
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 123.20
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 128.21
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 136.6
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 4.3
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 68.24
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 5.7
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 168.4
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 166.12
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 166.13
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