- अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्मपि कुर्वते।[1]
भक्तों पर देवता भी दया करते हैं।
- भक्तानां हि परित्यागो न धर्मेषु प्रशस्यते।[2]
भक्तों का परित्याग किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया।
- न स्पृशंति ग्रहा भक्तान् नरार् देवं महेश्वरम्।[3]
महेश्वर के भक्तों को ग्रह छू भी नहीं सकते हैं।
- ये प्रपन्ना: सुरगुरुं न ते मुह्मंति कर्हिचित्।[4]
जो देवताओं गुरु (ईश्वर) की शरण में हैं वे कभी मोह में नहीं पड़ते।
- भक्ता नारायणं देवं दुर्गाण्यतितरंति।[5]
नारायण के भक्त संकट से पार हो जाते हैं।
- न स शक्यस्त्वभक्तेन द्रष्टुं देव: कथञ्चन।[6]
जो भक्त नहीं है वह भगवान् का दर्शन नहीं कर सकता।
- न वासुदेवभक्तानामशुंभ विद्यते क्वचित्।[7]
कृष्ण के भक्तों का कहीं अशुभ नहीं होता।
- मा मे श्रिया संगमनं तयास्तु यस्या: कृते भक्तजनं त्यजेयम्।[8]
मुझे ऐसी श्री कभी न मिले, जिसके कारण भक्त का त्याग करना पड़े।
- भक्तत्यागं प्राहुरत्यंतं पापम्।[9]
भक्त का त्याग करने से अत्यंत पाप होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 2.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 175.12
- ↑ वनपर्व महाभारत 230.59
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 149.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 110.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 336.54
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 149.131
- ↑ महाप्रास्थानिकपर्व महाभारत 3.9
- ↑ महाप्रास्थानिकपर्व महाभारत 3.11
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