भक्त (महाभारत संदर्भ)

  • अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्मपि कुर्वते।[1]

भक्तों पर देवता भी दया करते हैं।

  • भक्तानां हि परित्यागो न धर्मेषु प्रशस्यते।[2]

भक्तों का परित्याग किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया।

  • न स्पृशंति ग्रहा भक्तान् नरार् देवं महेश्वरम्।[3]

महेश्वर के भक्तों को ग्रह छू भी नहीं सकते हैं।

  • ये प्रपन्ना: सुरगुरुं न ते मुह्मंति कर्हिचित्।[4]

जो देवताओं गुरु (ईश्वर) की शरण में हैं वे कभी मोह में नहीं पड़ते।

  • भक्ता नारायणं देवं दुर्गाण्यतितरंति।[5]

नारायण के भक्त संकट से पार हो जाते हैं।

  • न स शक्यस्त्वभक्तेन द्रष्टुं देव: कथञ्चन।[6]

जो भक्त नहीं है वह भगवान् का दर्शन नहीं कर सकता।

  • न वासुदेवभक्तानामशुंभ विद्यते क्वचित्।[7]

कृष्ण के भक्तों का कहीं अशुभ नहीं होता।

  • मा मे श्रिया संगमनं तयास्तु यस्या: कृते भक्तजनं त्यजेयम्।[8]

मुझे ऐसी श्री कभी न मिले, जिसके कारण भक्त का त्याग करना पड़े।

  • भक्तत्यागं प्राहुरत्यंतं पापम्।[9]

भक्त का त्याग करने से अत्यंत पाप होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 2.6
  2. उद्योगपर्व महाभारत 175.12
  3. वनपर्व महाभारत 230.59
  4. द्रोणपर्व महाभारत 149.19
  5. शांतिपर्व महाभारत 110.24
  6. शांतिपर्व महाभारत 336.54
  7. अनुशासनपर्व महाभारत 149.131
  8. महाप्रास्थानिकपर्व महाभारत 3.9
  9. महाप्रास्थानिकपर्व महाभारत 3.11

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