- कुर्वत: श्रेयो भवितान्यथा कुत: श्रेय:।[1]
कर्म करने से ही कल्याण होगा नहीं तो कहाँ से होगा।
- विधध्वं यच्छ्रेयो लोकानाम्।[2]
जिससे लोगों का कल्याण हो वही कर्म करो।
- यावदेव भवेत् कल्पस्तावच्छ्रेय: समाचरेत्।[3]
जब तक शरीर में शक्ति है तब तक अपना कल्याण कर लिया जाये।
- मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो य च धूमायितं चिरम्।[4]
मुहूर्त भर जलना अच्छा है न कि देर तक सुलगाना।
- व्रियतामात्मन: श्रेय:।[5]
अपने लिये कल्याण के मार्ग को चयन करो।
- प्रद्विष्टस्य कुत: श्रेय:।[6]
जिससे सभी द्वेष करते हों उसका कल्याण कैसे हो सकता है?
- श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय।[7]
यदि कल्याण का उपाय जानते हो तो उसे अवश्य करो, विचार मत करो।
- घटमान: स्वकार्येषु कुरु नि:श्रेयसं परम्।[8]
अपने कर्तव्य का पालन करते हुये अपना परम कल्याण करो।
- अद्यैव कुरु यच्छ्रेयो मा त्वां कालोऽत्यगादतम्।[9]
जिससे कल्याण हो वह कार्य आज ही कर लो यह समय बीत न जाये।
- धर्मादुत्कृष्यते श्रेयस्तथाश्रेयोऽप्य्धर्मत:।[10]
धर्म से श्रेय की प्राप्ति होती है तथा अधर्म से अनिष्ट होता है।
- श्रवणं चैव शास्त्राणां कूटस्थं श्रेय उच्यते।[11]
शास्त्रों का श्रवण कल्याण का श्रेष्ठ साधन है।
- सद्वृत्ति: समुदाचार: श्रेय एतदनुत्तमम्।[12]
उत्तम आचार और उत्तम व्यवहार ही श्रेय का उत्तम साधन है।
- प्रेत्य चेह च कर्त्तव्यमात्मनि: श्रेयसं परम्।[13]
जीते जी और मर के भी अपना परम कल्याण करना चाहिये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 3.97
- ↑ आदिपर्व महाभारत 179.16
- ↑ सभापर्व महाभारत 56.10
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 133.15
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 80.52
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 87.20
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 138.68
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 152.20
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 175.14
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 205.26
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 287.2
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 329.7
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 7.18
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