अर्थ (महाभारत संदर्भ)

  • अर्थेप्सुता परं दु:खमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम्।[1]

धन की इच्छा बड़ा दु:ख है, धन प्राप्त करने में और अधिक दु:ख है।

  • अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थ भजते नृणाम्।[2]

कितने ही लोगों के लिये अर्थ ही अनर्थ का कारण बन जाता है।

  • अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विंदते नर:।[3]

धन में आसक्त मनुष्य का कल्याण नहीं होता है।

  • अर्था दु:खं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रव:।[4]

धन का त्याग कठिन है और पास रहे तो उसके शत्रु अनेक हैं।

  • यस्य चार्थार्थमेवार्थ: स च नार्थस्य कोविद:।[5]

जिसका अर्थ केवल अर्थ के लिये है वह अर्थ के अर्थ को नहीं जानता।

  • धर्मश्चार्थेन महता शक्यो राजन् निषेवितुम्।[6]

राजन! धर्म का अनुष्ठान भी तो पर्याप्त धन से ही किया जा सकता है।

  • तेजसैवार्थलिप्सायां यतस्व:।[7]

शक्ति के द्वारा ही धन पाने का यत्न करो। (छल या चोरी से नहीं)

  • सत्त्वं हि मूलमर्थस्य्।[8]

बुद्धि ही अर्थ की मूल है।

  • अर्थैर्विहीन: पुरुष: परै: सम्परिभूयते।[9]

निर्धन मनुष्य दूसरों के द्वारा अपमानित किया जाता है।

  • अर्थे च महती तृष्णा स च दु:खेन लभ्यते।[10]

धन की कामना तो अधिक होती है परंतु वह मिलता है दु:ख है।

  • सहायबंधना ह्मर्था: सहायाश्चार्थबंधना:।[11]

धन की प्राप्ति सहायकों से होती है और सहायकों की प्राप्ति धन से।

  • अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।[12]

पुरुष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं।

  • यदर्थं शक्नुयात् प्राप्तुं तेन तुष्येत्।[13]

जो धन पाया जा सकता है उसी से संतुष्ट रहे।

  • अनृशंसश्चरेदर्थम्।[14]

बिना क्रूरता के धन कमाये।

  • नार्थमल्पं परिभवेत्।[15]

थोड़े धन का अपमान न करें।

  • धर्ममूल: सदैवार्थ:।[16]

धन का मूल सदा धर्म है।

  • कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्यर्थो न वा पुन:।[17]

बुद्धि से कर्म करने पर भी कभी धन मिलता है कभी नहीं।

  • अर्थ इत्येव सर्वेषां कर्मणामव्यतिक्रम:।[18]

अर्थ सारे कर्मों की मर्यादा के पालन में सहायक है।

  • न ह्मतेऽर्थेन वर्तेते धर्मकामाविति श्रुति:।[19]

वेद का वचन है कि अर्थ के बिना धर्म और काम सिद्ध नहीं होते।

  • अर्थस्यावयवावेतौ धर्मकामाविति श्रुति:।[20]

वे का वचन है कि धर्म और काम अर्थ के ही अवयव (अंग) हैं।

  • मुण्डा निस्तंतवश्चापि वसर्न्त्यार्थिन: पृथक्।[21]

एक ओर संतानरहित मुण्ड मुण्ड़ाये लोग भी धन की इच्छा रखते है।

  • अर्थयोग दृढं कुर्याद् योगैरूच्चावचैरिपि।[22]

जिस भी उपाय से हो सके, पर्याप्त अर्थसंग्रह कर लेना चाहिये।

  • अनर्थस्य न कामोऽस्ति तथार्थोऽधर्मिण: कुत:।[23]

धर्महीन को धन नहीं मिल सकता और निर्धन की कामना पूरी नहीं होती

  • धर्मप्रधानेन सध्योऽर्थ सन्यतात्मना।[24]

धर्म को प्रधानता देते हुए सन्यमसे धन अर्जित करे।

  • येऽर्था धर्मेण ते सत्या येऽधर्मेण धिगस्तु तान्।[25]

जो धन धर्म से मिले वही सत्य है जो पाप से मिले उसे धिक्कार है।

  • त्यज्यंते दु:खमर्था हि पालने न च ते सुखा:।[26]

धन का त्याग करना भी कठिन है और रक्षा भी कष्ट से ही होती है।

  • न्याय्यस्यार्थस्य सम्प्राप्तिं कृत्वा फलमुपाश्नुते।[27]

न्याय के मार्ग से धन अर्जित कर मनुष्य फल का उपभोग करता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 156.24
  2. वनपर्व महाभारत 2.41
  3. वनपर्व महाभारत 2.41
  4. वनपर्व महाभारत 2.44
  5. वनपर्व महाभारत 33.24
  6. वनपर्व महाभारत 33.8
  7. वनपर्व महाभारत 33.50
  8. वनपर्व महाभारत 33.64
  9. वनपर्व महाभारत 193.20
  10. वनपर्व महाभारत 259.29
  11. उद्योगपर्व महाभारत 37.38
  12. भीष्मपर्व महाभारत 43.41
  13. शांतिपर्व महाभारत 69.24
  14. शांतिपर्व महाभारत 70.3
  15. शांतिपर्व महाभारत 120.36
  16. शांतिपर्व महाभारत 123.4
  17. शांतिपर्व महाभारत 123.8
  18. शांतिपर्व महाभारत 167.12
  19. शांतिपर्व महाभारत 167.12
  20. शांतिपर्व महाभारत 167.14
  21. शांतिपर्व महाभारत 167.16
  22. शांतिपर्व महाभारत 167.22
  23. शांतिपर्व महाभारत 167.25
  24. शांतिपर्व महाभारत 167.26
  25. शांतिपर्व महाभारत 292.19
  26. शांतिपर्व महाभारत 330.18
  27. शांतिपर्व महाभारत 360.11

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