आरम्भ (महाभारत संदर्भ)

  • फलार्थोऽयं समारम्भो लोके पुंसा विपश्चिताम्।[1]

संसार में विद्वान् मनुष्यों का सारा आयोजन फल पाने के लिये होता है।

  • नारभेतान्यसामर्थ्यात् पुरुष: कार्यमात्मन:। [2]

मनुष्य दूसरे के बल पर अपना कार्य आरम्भ न करे।

  • अनारम्भे हि न फलं न गुणो दृश्यते क्वचित्।[3]

कर्म आरम्भ न किया जाये तो न तो फल दिखाई देगा न कर्ता का गुण

  • न ते मिथ्या समारम्भो भवतु।[4]

तुम्हारा आयोजन व्यर्थ ना हो।

  • सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:।[5]

सभी कर्मों में कोई न कोई दोष होता ही है जैसे कि अग्नि में धुआँ।

  • अनारम्भात् तु कार्याणां नार्थ: सम्पद्यते क्बचित्।[6]

कार्य आरम्भ ही न किया जाये तो कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है।

  • सर्वसमारम्भो दुर्लभ: पुरुषं प्रति।[7]

सारे कर्म एक साथ आरम्भ करना मनुष्य के लिये दुर्लभ है।

  • सुखप्रयोजनार्थ आरम्भ:।[8]

सुख के लिये ही आर्य आरम्भ किया जाता है।

  • प्रवृत्तं नोपरूंधेत।[9]

आरम्भ करके बीच में न रोकें।

  • विदित्वा सर्वार्थानारभेतेति वैदिकम्।[10]

जानकर सभी कार्यों को आरंभ करें यह वेद का मत है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 139.21
  2. सभापर्व महाभारत 56.8
  3. वनपर्व महाभारत 32.52
  4. वनपर्व महाभारत 125.4
  5. भीष्मपर्व महाभारत 42.48
  6. सौप्तिकपर्व महाभारत 2.34
  7. शांतिपर्व महाभारत 88.10
  8. शांतिपर्व महाभारत 190.9
  9. शांतिपर्व महाभारत 215.24
  10. शांतिपर्व महाभारत 268.15

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