दान्त (महाभारत संदर्भ)

दान्त ‌‌= संयमी

  • न किंचिदुपजीवन्ति दान्ता उत्थानशीलिन:।[1]

उन्नतिशील संयमी लोग किसी और के आश्रय में नहीं जीते।

  • दान्त: शमपर: शश्वत् परिक्लेशं न विन्दति।[2]

जो मन और इंद्रियों पर सन्यम रखता है उसे कभी क्लेश नहीं होता।

  • न च तप्यति दांतात्मा दृष्ट्वा परगतां श्रियम्।[3]

जिसका मन वश में है वह औरो के पास धन देखकर उद्विग्न नहीं होता

  • सुखं दांत: प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते।[4]

संयमी सुख से सोता है तथा सुख से ही जागता है।

  • दान्तस्य किमरण्येन तथादान्तस्य।[5]

मन वश में है तो वन से क्या काम और मन वश में नहीं है तो भी।

  • प्रसन्नाऽऽत्मनि स्थित्वा सुखमानन्त्यमश्नुते।[6]

निर्मल मन मनुष्य अपने-आप में स्थित हो अत्यन्त सुख पाता है।

  • विपाप्मा निर्भयो दान्त: पुरुषो विन्दते महत्।[7]

संयमी पाप और भय से रहित होकर महान् लाभ पाता है।

  • नमस्य: सर्वभूतानां दान्तो भवति बुद्धिमान्।[8]

बुद्धिमान् सन्यमी मनुष्य सभी प्राणियों के लिये वन्दनीय होता है।

  • पक्वकषायो हि दान्त: सर्वत्र सिध्यति।[9]

भोगों को भोगकर देख लेने वाला व्यक्ति सन्यमी कहीं भी रहे, सिद्ध हो जाता है

  • प्रार्थयंति च यद् दान्ता लभन्ते तन्न संशय:।[10]

जिसका मन वश में है वह जो भी इच्छा करे वही पूरी होती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 207.40
  2. वनपर्व महाभारत 259.23
  3. वनपर्व महाभारत 259.23
  4. शांतिपर्व महाभारत 160.1
  5. शांतिपर्व महाभारत 160.36
  6. शांतिपर्व महाभारत 187.30
  7. शांतिपर्व महाभारत 220.4
  8. शांतिपर्व महाभारत 220.15
  9. शांतिपर्व महाभारत 234.
  10. अनुशासनपर्व महाभारत 75.12

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