- मनुष्यसम्भवा वाचो विधर्मिण्य: प्रतिश्रुता:।[1]
मनुष्यों की बातें असत्य होती सुनी गई हैं।
- अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।[2]
मधुर शब्दो में बोली गई वाणी अनेक प्रकार से कल्याण करती है।
- वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करमो मत:।[3]
राजन्! वाणी का संयम अति कठिन माना जाता है।
- नाविभाव्यां गिरं सृजेत्।[4]
जिसका अर्थ स्पष्ट न हो ऐसी बाणी न बोलें।
- वाचा तु यत्कर्म करोति किंचिद्वाचैव सर्वं सपुपाश्नुते।[5]
ऋजु वाणी से जो कर्म करता है उसका फल वाणी से ही भोगता है।
- यत्र नास्ति पदन्यास: कस्तं विषयमाप्नुयात्।[6]
जो विषय वाणी का है ही नहीं उसका वर्णन कौन कर सकता है?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.6
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.77
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 34.76
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 93.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 201.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 205.18
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