- एकान्तेन ह्यनीहोऽयं पराभवति पूरुष:।[1]
बिल्कुल कर्म छोड़ कर बैठ जाने से मनुष्य का पतन होता है।
- एकान्तफलसिद्धिं तु न विन्दत्यलस: क्वचित्।[2]
आलसी को कभी भी कहीं भी सफलता नहीं मिलती।
- अलक्ष्मीराविशत्येनं शयानमलसं नरम्। [3]
जो मनुष्य आलस्य में पड़कर सोया रहता है उसे दरिद्रता घेर लेती है।
- शक्वोति जीवितुं दक्षो नालस: सुखमेधते। [4]
कुशल मनुष्य ही जी सकता है, आलसी कभी सुख नहीं पाता।
- भूति: श्रीर्न्ह्रीर्घृति: कीर्तिदक्षे वसति नालसे।[5]
वैभव, लक्ष्मी, लज्जा, कीर्ति और धैर्य ;कुशल में रहते हैं आलसी में नहीं
- सुखं दु:खांतमालस्तम्।[6]
आलस्य में सुख है परंतु उसका अंत दु:ख में होता है।
- खादंति हस्तिनं न्यासै: क्रव्यादा:।[7]
हाथी यदि (आलस में) पड़ा रहे तो उसे मांसभक्षी जीव खा जाते हैं।
- नालसा: प्राप्नुवन्त्यर्थान् न क्लीबा नाभिमानिन:। [8]
भीरु, अभिभानी और आलसियों को अभीष्ट पदार्थ नहीं मिलते।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.39
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.40
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.42
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 2.15
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 27.31
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 27.31
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 18.18
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 104.23
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