- विचार्य कुरु यद्धितम्।[1]
विचार करके वही कार्य करो जिसमें हित ह।
- सर्वथा सर्वप्रयत्नेन पुत्रे शिष्ये हितं वदेत्।[2]
सब प्रकार पूरे प्रयत्न से पुत्र और शिष्य के लिये हितकारी बात ही बोले
- हितहितांस्तु बुद्धयेथा मा परोक्षमतिर्भवे:।[3]
हित और अहित को जानों, परोक्ष बातों पर विश्वास मत करो।
- सर्वभूतहितं तिष्ठा।[4]
सभी प्राणियों का भला करो।
- पेशलं चानुरुपं च कर्त्तव्य हितमात्मन:।[5]
सुंदर, अनुकूल और अपने लिये हितकारी कर्म करना चाहिये।
- न निर्वेदं मुनिर्गच्छेत् कुर्यादेवात्मनो हितम्।[6]
मुनि को अपना हित करना ही चाहिये उससे ऊबना नहीं चाहिये।
- नापध्यायेन्न स्पृहयेन्नाबद्धं चिन्तयेदसत्।[7]
किसी का अहित न सोचे, असम्भव की कामना और चिंतन न करे।
- सत्यादपि हितम् वदेत्।[8]
सत्य से भी अच्छा है हितकर बोलना।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 109.8
- ↑ विराटपर्व महाभारत 51.15
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 82.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 151.16
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 181.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 195.16
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 215.8
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 329.13
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