अतिथि (महाभारत संदर्भ)

  • यदर्थो हि नरो राजंस्तदर्थोऽस्यातिथि: स्मृत:।[1]

जैसे पदार्थो का उपभोग स्वयं करें वैसे ही पदार्थ अतिथि को भी दें।

  • अर्चयेद् भूतिमंविच्छन् गृहस्थो गृहमागतम्। [2]

अपना कल्याण चाहने वाले गृहस्थ को घर आये का आदर करना चाहिये।

  • नावमन्येदभिगतं न प्रणुद्यात् कदाचन। [3]

घर आये मनुष्य का न अपमान करें, न उसे भगायें।

  • अनित्यं हि स्थितो यस्मात् तस्मादतिथिरुच्यये। [4]

सदा स्थित नहीं रहता इसलिये अतिथि कहलाता है।

  • स्वदेशे परदेशे वाप्यतिथिंं नोपवासयेत्। [5]

अपने घर में या परदेश में अतिथि को कहीं भूखा न रहने दें।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आश्रमवासिकपर्व महाभारत.26.37
  2. अनुशासनपर्व महाभारत. 63.11
  3. अनुशासनपर्व महाभारत.63.13
  4. अनुशासनपर्व महाभारत.97.19
  5. अनुशासनपर्व महाभारत.162.43

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