- वर्जनीयं नरेंद्र दुष्टं लोके गर्हणीयं च कर्मं।[1]
नरेंद्र! इस लोक में दुष्ट और निंदनीय कर्म को त्याग देना चाहिये।
- न मज्जेस्त्वं तथा कृत्यं समाचर।[2]
जिससे संकट में न पड़ो वैसा कर्म करो।
- कर्म चेत्किंचिदन्यत् स्यादितरन्न तदाचरेत्।[3]
निंदित कार्य एक बार कर बैठें तो उसे फिर कभी न करें।
- स्वकर्म त्यजयो ब्रह्मन्नधर्म इह दृश्यते।[4]
ब्रह्मन्! अपना स्वाभाविक कर्म त्याग देने से अधर्म होता है।
- कर्तुं चाहं न शक्ष्यामि कर्म सदिभविगर्हितम्।[5]
सज्जन जिस की निंदा करते हैं ऐसा कर्म मैं नहीं कर सकूँगा।
- कस्तत् कुर्याज्जातु कर्म प्रजानन् पराजयो यत्र समो जयश्च।[6]
कौन जानबूझ कर ऐसा कर्म करेगा जिसमें जय-पराजय दोनों समान हों।
- वर्जनं वर्जनीयानामीहमानेन दुष्करम्।[7]
कामनायुक्त मनुष्य के लिये न करने योग्य कर्मो को त्यागना कठिन है।
- परेषां यदसूयेत न तत् कुर्यात् स्वयं नर:।[8]
मनुष्य दूसरों के जिस कर्म की निंदा करे, उसी को स्वयं न करे।
- वाक्कायमनसा नाचरेदशुभम्।[9]
मन, वाणी और शरीर से अशुभ आचरण न करे।
- नर: करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहित:।[10]
मनुष्य दूसरों के लिये लोभ के कारण अनुचित कार्य करता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 90.5
- ↑ आदिपर्व महाभारत 139.90
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.44
- ↑ वनपर्व महाभारत 208.9
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 9.30
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 25.7
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 26.19
- ↑ शान्तिपर्व महाभारत 290.24
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 13.6
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 111.16
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