- कस्माच्चिद् दानयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते।[1]
(कभी-कभी) किसी दान से तो सत्य का ही महत्त्व अधिक है।
- सत्यावाक्याच्च राजेंद्र किंचिद् दानं विशिष्यते।[2]
राजन्! कहीं-कहीं दान का महत्त्व सत्य बोलने से भी अधिक है।
- जयेत् कदर्यं दानेन सत्येनानृतवादिनम्।[3]
नीच व्यक्ति को दान से, असत्यवादी को सत्य से जीतो।
- दानं वै भूतरक्षणम्।[4]
प्राणियों की रक्षा करना दान कहलाता है।
- प्रयच्छंतु प्रदातव्यं मा व: कालोऽत्यागादयम्।[5]
जो देना है वह दे दो कहीं समय हाथ से निकल न जाये।
- अर्हते याचमानाय प्रदेयं तुच्छुभं भवेत्।[6]
योग्य याचक को दान देना शुभ है।
- दानं दीयतेऽनुपुकारिणे।[7]
ऋजु दान उसे दे जिसने कभी ऋजु का उपकार न किया हो।
- लब्धस्य त्यागमित्यार्हुन भोगं न च संचयम्।[8]
जो धन प्राप्त हो उसका भोग या संग्रह करने से दान करना अच्छा है।
- अनुक्रोशात् प्रदातव्यं हीनेषु।[9]
दीन-हीन लोगों को दया के कारण दान देना चाहिये।
- न हि प्राणसमं दानं त्रिषु लोकेषु विद्यते।[10]
तीनों लोकों में प्राणदान के समान दूसरा कोई दान नहीं है।
- दातव्यं चाप्यपीडया।[11]
स्वयं को कष्ट न देते हुए दान दे देना चाहिये।
- दातव्यमित्ययं धर्म उक्तो भूतहिते रतै:।[12]
सभी प्राणियों के हित में लगे रहने वाले पुरुषों ने दान को धर्म बताया है।
- दातव्यमेवेह प्रतिश्रुत्य्।[13]
संसार में किसी को देने के लिये कह दिया हो तो देना ही चाहिये।
- दत्तं मन्येत यद् दत्वा तद् दानं श्रेष्ठमुच्यते।[14]
दान देकर दिया हुआ माने (ममता न रहे) वह दान श्रेष्ठ कहलाता है।
- दानं ददत् पवित्रीस्यात्।[15]
दान देते रहने से अपवित्र पवित्र हो जाता है।
- न हि दत्तस्य दानस्य नाशोऽस्तीह कदाचन।[16]
इस लोक में दिये हुए दान का कभी नाश नहीं होता।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 181.5
- ↑ वनपर्व महाभारत 181.5
- ↑ वनपर्व महाभारत 196.6
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.96
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 43.33
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 41.20
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 41.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 26.28
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 36.43
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 72.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 86.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 259.18
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 9.25
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 59.4
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 93.12
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 130.34
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