यज्ञ (महाभारत संदर्भ)

  • मृतो यज्ञस्त्वदक्षिण:।[1]

बिना दक्षिणा के यज्ञ मरा हुआ है।

  • यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन:।[2]

यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त कर्म बंधनकारी हैं।

  • यज्ञाद् भवति पर्जन्य:।[3]

यज्ञ से बादल उत्पन्न होते हैं।

  • सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।[4]

सर्वव्यापक परमात्मा सदा यज्ञ में ही प्रतिष्ठित (रहता) है।

  • सर्वं यज्ञ एवोपयोज्यं धनं ततोऽनंतर एव काम:।[5]

सारा धन यज्ञ में ही लगा देना चाहिये उससे शीघ्र ही कामना पूरी होगी।

  • यज्ञाय स्रष्टानी धनानि धात्रा यज्ञाय सृष्ट: पुरुष:।[6]

विधाता ने धन और मनुष्य की रचना यज्ञ के लिये ही की है।

  • यज्ञवित् तु सुदुर्लभ:।[7]

यज्ञ के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला अत्यंत दुर्लभ है।

  • अनुयज्ञं जगत् सर्वं यज्ञश्चानुजगत् सदा।[8]

सारा जगत् सदा यज्ञ के पीछे है और जगत् के पीछे यज्ञ रहता है।

  • नायं लोकोऽस्त्ययज्ञानां परश्चेति विनिश्चय:।[9]

जो यज्ञ नहीं करते उनके लिये निश्चय ही न यह लोक है न परलोक

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 313.84
  2. भीष्मपर्व महाभारत 27.9
  3. भीष्मपर्व महाभारत 27.14
  4. भीष्मपर्व महाभारत 27.15
  5. शांतिपर्व महाभारत 20.10
  6. शान्तिपर्व महाभारत 26.25
  7. शान्तिपर्व महाभारत 263.4
  8. शान्तिपर्व महाभारत 268.34
  9. शान्तिपर्व महाभारत 268.40

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