- कर्तृत्वादेव पुरुष: कर्मदिद्धौ प्रशस्यते।[1]
पुरुष कर्म का कर्ता है, इसलिये कर्म सफल होने पर वह प्रशंसा पाता है
- कृतमंवेति कर्तारं पुरा कर्मं। [2]
किया गया कर्म कर्ता के पीछे चलता है।
- न च कश्चित् कृते कार्ये कर्तारं अमवेक्षते। [3]
कार्य हो जाने पर कर्ता की ओर ध्यान नहीं देता।
- कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यसंयुताम्। [4]
कुशल कर्ता सब स्थान पर भाग्य के अनुसार प्रतिष्ठा पाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 32.31
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.111
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 6.11
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