- पंथाश्च वो नाविदित: कश्चिद् स्याद्।[1]
कोई मार्ग तुम्हारे लिये अविदित (अपरिचित) ना हो।
- अंधस्य पन्था:बधिरस्य पन्था:स्त्रिय:पन्था:भारवाहस्य पन्था:।[2]
नयन या कान से रहित, स्त्री और भार ढोने वाले को मार्ग देना चाहिये।
- विशिष्टस्य पन्था उपदिश्यते समर्थाय वा।[3]
गुणवान् या शक्तिशाली को मार्ग देना चाहिये यह उपदेश किया गया है।
- महाजनो येन गत: स पन्था:।[4]
महापुरुष जिस मार्ग पर चलते रहे हैं वही मार्ग है।
- सद्भिर्विगर्हितं मार्गं त्यज मूर्खनिषेवितम्।[5]
जिस मार्ग पर मूर्ख चलते हैं तथा सज्जन निंदा करते हैं उसे त्याग दो।
- उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यूगो विधीयते।[6]
कुमार्ग पर चलने वाले को त्याग देना चाहिये।
- धर्म्यं देशय पन्थानम्।[7]
धर्म के अनुकूल मार्ग का उपदेश करो।
- पितृपैतामहं मार्गमनुयाहि।[8]
बाप-दादाओं के मार्ग पर चलो।
- आचार्यानुगतो मार्ग: शिष्यैरंवास्यते सदा।[9]
शिष्य लोग सदा गुरु के मार्ग पर चलते रहे हैं।
- न त्वं कापुरुषाचीर्णं मार्गमास्थातुमर्हसि।[10]
जिस मार्ग पर भीरू चला करते हैं तुम उस पर मत चलो।
- पथ: प्रच्युतो धर्मात् कुपथे प्रतिहन्यते।[11]
धर्म के मार्ग से पथभ्रष्ट होकर कुमार्ग पर चलने वाला मारा जाता है।
- चिकित्स्य: स्याद् य उन्मार्गेण गच्छति।[12]
जो कुमार्ग पर चलता है उसकी चिकित्सा करनी चाहिये।
- पूर्वे समुद्रे य: पन्था: स न गच्छति पश्चिमम्।[13]
पूर्व समुद्र की ओर जो मार्ग जाता है वह पश्चिम को नहीं जाता है।
- गतं गच्छन्ति चाध्वानं सर्वभूतानि सर्वदा।[14]
सभी प्राणी सदा उसी मार्ग पर ही चलते हैं जिस पर कभी कोई चला हो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 144.32
- ↑ वनपर्व महाभारत 133.1
- ↑ वनपर्व महाभारत 194.3
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.117
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 135.8
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 178.48
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 3.53
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 74.28
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 113.33
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 90.110
- ↑ सौप्तिकपर्व महाभारत 6.21
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 14.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 274.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 279.22
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