मृत्यु (महाभारत संदर्भ)

  • विशिष्टान्मरणं वतम्।[1]

(दुष्ट की अपेक्षा) श्रेष्ठ मनुष्य के हाथों मरना अच्छा है।

  • शरीरिणां हि मरणं शरीरे नित्यमाश्रितम्।[2]

प्राणियों की मृत्यु सदा उनके शरीर में ही रहती है।

  • को वै शक्तो हंतुमक्षीयमाण:।[3]

ऐसा कौन है जो स्वयं क्षीण न होकर दूसरों को मार सकता है।

  • नात्मच्छंदेन भूतानां जीवितं मरणम्।[4]

प्राणियों की जीवन-मरण अपनी इच्छा से नहीं होता।

  • कोघ्नन् न प्रति हन्यते।[5]

ऐसा कौन होगा जो दूसरों को मारे परंतु स्वयं न मारा जाये

  • न चापि कृत्रिम: काल कालो हि परमेश्वर:।[6]

मृत्यु कृत्रिम (अपनी इच्छा से) नहीं होती, वह परमेश्वर का हि स्वरूप है।

  • अतितरंत्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:।[7]

सुने हुए के अनुसार उपासना करने वाले मृत्यु को पार कर ही जाते हैं।

  • नूनं पर दु:खेन म्रियते कोऽपि।[8]

निश्चय ही दूसरे के दु:ख से कोई नहीं मर सकता है।

  • पक्वानां हि वधे सूत वज्रायंते तृणान्युत।[9]

सूत! मृत्यु का समय आने पर तिनके भी व्रज बन जाते हैं।

  • वै प्राणिनो घ्नंति सर्वें।[10]

सभी प्राणी अपने आप को मारते हैं। (अपने ही पाप से मरते हैं)

  • नास्ति चाप्यमरत्वं वै मनुष्यस्य कथञ्चन।[11]

मनुष्य किसी भी प्रकार अमर नहीं हो सकता।

  • न नूनं देहभेदोऽस्ति काले राजन्ननागते।[12]

राजन्! निश्चय ही काल आये बिना किसी का शरीर नष्ट नहीं होता।

  • दुर्मरं तदहं मन्ये नृणां कृच्छ्रेऽपि वर्तताम्।[13]

कितना भी कष्ट क्यों ना हो मनुष्यों के लिये मरना सरल नहीं है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वनपर्व महाभारत 278.9
  2. वनपर्व महाभारत 35.6
  3. उद्योगपर्व महाभारत 25.12
  4. उद्योगपर्व महाभारत 72.50
  5. उद्योगपर्व महाभारत 72.53
  6. उद्योगपर्व महाभारत 112.20
  7. भीष्मपर्व महाभारत 37.25
  8. द्रोणपर्व महाभारत 9.9
  9. द्रोणपर्व महाभारत 11.48
  10. द्रोणपर्व महाभारत 54.50
  11. द्रोणपर्व महाभारत 92.47
  12. द्रोणपर्व महाभारत 187.42
  13. कर्णपर्व महाभारत 1.21

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