कीर्ति (महाभारत संदर्भ)

  • नष्ट्कीर्तेर्मनुष्यस्य जीवितं ह्मफलं स्मृतम्। [1]

कीर्ति के नष्ट होने से मनुष्य का जीवन निष्फल माना जाता है।

  • कीर्तिर्हि पुरुषं लोके संजीवयति मातृ वत्। [2]

संसार में कीर्ति मनुष्य को माता की भाँति जीवन प्रदान करती है।

  • पुरुषस्य परे लोके कीर्तिरेव परायणम्। [3]

परलोक में मनुष्य को कीर्ति का ही आश्रय है।

  • कीर्तिरायुर्विवर्धनी। [4]

कीर्ति से आयु बढ़ती है।

  • कीर्तिश्च जीवत: साध्वी पुरुषस्य। [5]

जीवित मनुष्य के लिये ही कीर्ति अधिक काम की वस्तु है।

  • स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि। [6]

धर्म और कीर्ति को छोड़ने से पाप होगा।

  • धर्ममूला सतां कीर्तिर्मनुष्याणाम्। [7]

सज्जनों की कीर्ति का मूल कारण धर्म का पालन करना ही है।

  • कीर्तिर्भवति दानेन। [8]

दान से कीर्ति होती है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत202.10
  2. वनपर्व महाभारत300.32
  3. वनपर्व महाभारत300.34
  4. वनपर्व महाभारत300.34
  5. वनपर्व महाभारत301.13
  6. भीष्मपर्व महाभारत26.33
  7. शल्यपर्व महाभारत32.16
  8. अनुशासनपर्व महाभारत57.19

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