- न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु ग्रसते विधि:।[1]
बुद्धि विधि को नहीं मिटा सकती, विधि बुद्धि को मिटा देता है।
- विधिपर्यागतानर्थान् प्राज्ञो न प्रतिपद्यते।[2]
विधि से प्राप्त होने वाले पदार्थों को बुद्धिमान् भी नहीं जान पाता।
- विधिर्हि बलवत्तर:।[3]
विधि अति बलवान् होती है।
- अनतिक्रमणीयो वै विधि:।[4]
विधि का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता।
- नास्ति पुत्र: समृद्धनां विचित्रं विधिचेष्टितम्।[5]
धनवानों के संतान ही नहीं है विधि की रचना विचित्र है।
- विधौ स्थितानां हि प्रायश्चित्तं न विद्यते।[6]
विधि के अनुसार जीवन जीने वालों के लिये प्रायश्चित्त नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 117.10
- ↑ आदिपर्व महाभारत 117.10
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 8.52
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 52.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 28.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 270.14
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