ज्ञाति= अपने कुल के लोग
- येन केनचिदार्त्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्।[1]
जैसे भी हो सके संकट में पड़े ज्ञाति जनों को सुख पहुँचाना चाहिये।
- विग्रहो हि महाराज स्वजनेन विगर्हित:।[2]
महाराज! अपने लोगों से कलह करना निंदित है।
- ज्ञातयो वर्धनीयास्तैर्य इच्छन्त्यात्मन: शुभम्।[3]
जो अपना भला चाहते हैं उन्हें अपने परिवार की उन्नति करनी चाहिये।
- विगुणा ह्मापि संरक्ष्या ज्ञातय:।[4]
कुल परिवार के लोग गुणहीन हों तो भी उनकी रक्षा करनी चाहिये।
- ज्ञतिभिर्विग्रहस्तात न कर्तव्य: शुभार्थिना।[5]
शुभ चाहने वालों को अपने परिवाह के साथ कलह नहीं करनी चाहिये।
- सुखानि सह भोज्यानि ज्ञातिभि:।[6]
परिवार के साथ मिलकर ही सुखों का भोग करना चाहिये।
- अधनाद्धि निवर्तन्ते ज्ञातय: सुह्रद:।[7]
धनहीन मनुष्य से उसके परिवार के लोग और मित्र मुख मोड़ लेते हैं।
- मज्जमानानां बंधूनां त्वं प्लवो भव।[8]
डूबते हुये बंधु लोगों के लिये तुम नौका बनो।
- सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहुमन्यते।[9]
अपने लोग जिसका आदर करते हैं दूसरे भी उसका आदर करते हैं।
- स्वजनेन त्ववज्ञातं परे परिभवन्ति।[10]
अपने लोग जिसका अपमान करते हैं दूसरे भी उसका अपमान करते हैं।
- अज्ञातिमन्तं पुरुषं परे चाभिभवन्ति।[11]
परिवार रहित पुरुष को दूसरे लोग अपने प्रभाव में रखते हैं।
- निकृतस्य नरैरन्यैर्ज्ञातिरेव परायणम्।[12]
दूसरों से अपमानित मनुष्य को अपने कुल के लोग ही आश्रय देते हैं।
- नान्यैर्निकारं सहते ज्ञातिर्ज्ञाते: कथञ्चन।[13]
व्यक्ति अपनों का किसी दूसरे के हाथों कैसे भी अपमान सहन नहीं करता।
- ज्ञातयो ह्मवमन्यन्ते मित्राणी च धनाच्युतम्।[14]
निर्धन मनुष्य का भाई-बंधु और मित्र अपमान करते हैं।
- ज्ञातिश्रैष्ठ्यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नर:।[15]
प्रयोग करने में कुशल मनुष्य परिवार में श्रेष्ठ हो जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 80.24
- ↑ वनपर्व महाभारत 8.7
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.18
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.20
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 39.23
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.20
- ↑ द्रोणपर्व महाभारत 173.46
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 67.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 67.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.34
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 177.34
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 104.101
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