- जंतुश्चरति कार्यवान्।[1]
जंतु कार्य के लिये भटक रहा है।
- प्राणिनोऽन्योन्यभक्षा:।[2]
प्राणी एक दूसरे को खाते हैं।
- जावैर्ग्रस्तमिदं सर्वमाकाशं पृथिवी तथा।[3]
पृथ्वी से आकाश तक सब जीवों से भरा है।
- सर्वेषामेव भूतानामन्योन्येनोपजीवनम्।[4]
सभी प्राणी एक दूसरे के सहारे जीवन यापन करते हैं।
- प्राणी करोत्ययं कर्म सर्वमात्मार्थमात्मना।[5]
यह सभी प्राणी सारा कार्य स्वयं अपने लिये ही करता है।
- किमात्मना यो न जितेंद्रियो वशी।[6]
वह प्राणी किस काम का है जिसके न मन वश में है और न इंद्रियाँ।
- विनाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेयं स्वकर्मणा।[7]
ऋजु के विनाश का कारण दूसरा नहीं है, अपने ही कर्म से मरता है।
- प्राणिनामपि सर्वेषां सर्वं सर्वत्र दृश्यते।[8]
सभी प्राणियों में सब प्रकार की बातें देखने को मिलती हैं।
- सत्याद् भूतानि जातानि।[9]
सत्य से प्राणी उत्पन्न हुए हैं।
- अन्योन्यापाश्रया: सर्वे तथान्योयानुर्वतिन:।[10]
सभी परस्पर आश्रित हैं, तथा सभी एक दूसरे का अनुसरण करते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 181.14
- ↑ वनपर्व महाभारत 208.19
- ↑ वनपर्व महाभारत 208.22
- ↑ भीष्मपर्व महाभारत 4.13
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 292.1
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 321.93
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 1.71
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 5.11
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 35.34
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 39.2
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