- नाधृतिर्बुद्धिमाप्नोति।[1]
धैर्य के बिना सद्बुद्धि नहीं प्राप्त होती।
- नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर।[2]
धैर्य को नाव बनाकर उससे जन्म रूपी संकट से पार हो जाओ।
- धृत्या द्वितीयवान् भवति।[3]
धैर्य है तो लगता है कि कोई मित्र साथ में है।
- न संत्याज्यं च ते धैर्ये कदाचिदपी।[4]
तुम्हें कभी भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिये।
- धृतिर्नाम सुखे दु:खे यथा नाप्नोति विक्रियाम्।[5]
सुख या दु:ख आने पर मन में विकार उत्पन्न न होना धैर्य कहलाता है।
- वीतहर्षभयक्रोधो धृतिमाप्नोति।[6]
हर्ष (प्रसन्नत), भय और क्रोध को त्याग देने से धैर्य की प्राप्ति होती है।
- धृतिमानात्मवान् बुद्धिं निगृह्रियादसंशयम्।[7]
धैर्य वाला विद्वान् संशय त्याग कर अपनी बुद्धि को वश में करे।
- धैर्येण युक्तस्य सत: शरीरं न विशीर्यते।[8]
धैर्य धारण करने वाले का (चिन्ता से) शरीर नष्ट नहीं होता।
- इच्छां द्वेषं च कामं च धैर्येण विनिवर्तयेत्।[9]
इच्छा, द्वेष और कामवासना का धैर्य से निवारण करे।
- धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्।[10]
धैर्य के द्वारा काम और भोजन की वासना पर नियंत्रण पायें।
- क्षुधापरिगतज्ञानो धृतिं त्यजति।[11]
भूख ज्ञान को ढक देती है और ऋजु धैर्य को त्याग देता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 144.24
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.72
- ↑ वनपर्व महाभारत 313.48
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 56.47
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.19
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 162.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 215.18
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 227.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 274.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 330.28
- ↑ आश्वमेधिकपर्व महाभारत 90.91
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