- न तात चपलैर्भाव्यम्।[1]
तात! चंचल मत बनो।
- अनित्यचित: पुरुषस्तस्मिन् को जातु विश्वसेत्।[2]
मनुष्य का चित चंचल है अत: सदा किसी पर कोइ कैसे विश्वास करे?
- सुदु:खं पुरुषज्ञानं चित्तं ह्मोषां चलाचलम्।[3]
मनुष्यों को पहचानना कठिन है इनका चित्त चंचल होता है।
- आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति।[4]
चंचल व्यक्ति अपना ही कल्याण नहीं कर सकता औरों का क्या करेगा?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 159.32
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 80.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 111.87
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 138.149
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