- उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिण:।[1]
मनीषी जन उदारता को ही धर्म कहते है।
- आरम्भो न्याययुक्तो य: स हि धर्म इति स्मृत:।[2]
जो आरम्भ (उपक्रम या योजना) न्यायसंगत हो वही धर्म कहा गया है।
- स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चय:।[3]
अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।
- नासौ धर्मों यत्र न सत्यमस्ति।[4]
जिसमें सत्य नहीं वह धर्म, धर्म ही नहीं है।
- यस्मिन् यथा वर्तते यो मनुष्यस्तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं सधर्म:।[5]
जो जैसा व्यवहार करे ऋजु भी उससे वैसा ही व्यवहार करे, यह धर्म है।
- धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजा:।[6]
धर्म ही प्रजा को धारण करता है इसलिये ही उसे धर्म कहते है।
- दण्डं धर्म विदुर्बुधा:।[7]
ज्ञानी जन दण्ड को धर्म मानते है।
- अद्रोहेणैव भूतानां यो धर्म: स सतां मत:।[8]
जीवों से द्रोह किये बिना जो धर्म हो संतों के मत में वही श्रेष्ठ धर्म है।
- य: स्यात् प्रभवसंयुक्त: स धर्म इति निश्चय:।[9]
जिसमें कल्याण करने का सामर्थ्य है वही धर्म है।
- धर्मस्याख्या महाराज व्यवहार इतीष्यते।[10]
महाराज! धर्म का ही नाम व्यवहार है।
- मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिण:।[11]
मनीषी व्यक्तियों का कथन है कि समस्त प्राणियों के मन में धर्म है।
- बुद्धिसंजननो धर्म आचारश्च सतां सदा।[12]
धर्म और सज्जनों का आचार व्यवहार दोनों बुद्धि से ही प्रकट होते हैं।
- सदाचार: स्मृतिर्वेदास्त्रिविधं धर्मलक्षणम्।[13]
वेद, स्मृति और सदाचार ये तीन धर्म के लक्षण हैं।
- अनेकांत बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिण:।[14]
मनीषी कहते हैं धर्म के साधन और फल अनेक हैं।
- धर्म हि श्रेय इत्याहु:।[15]
धर्म के ही कल्याण कहते हैं या कल्याण को ही धर्म कहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 33.53
- ↑ वनपर्व महाभारत 207.77
- ↑ वनपर्व महाभारत 208.9
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 35.58
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 37.7
- ↑ कर्णपर्व महाभारत 69.58
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 15.2
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 21.11
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 109.10
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 121.9
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 193.31
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 142.5
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 259.3
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 22.18
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 105.14
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