- मावमंस्था: परान् राजन्नस्ति वीर्यं नरे नरे। [1]
राजन्! प्रत्येक मनुष्य में बल होता है, किसी का अपमान मत करो।
- अवज्ञानं हि लोकेऽस्मिन् मरणादपि गर्हितम्। [2]
अपमान संसार में मृत्यु से भी अधिक निंदनीय है।
- न हि मानप्रदग्धानां कश्चिदस्ति शम: क्वचित्। [3]
अपमान की आग में जलने वालों को कहीं शान्ति नहीं मिलती।
- नावमान्यास्र्वया राजन्नधमोत्कृष्टमध्यमा:। [4]
राजन्! उत्तम, नीच या मध्यम किसी का भी अपमान नहीं करना चाहिये।
- योऽवमंता स नश्यति। [5]
अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है।
- स्वयं प्राप्ते परिभवो भवतीति निश्चय:। [6]
निमन्त्रण के बिना किसी के पास जाने पर निश्चय ही अनादर होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सभापर्व महाभारत. 22.21
- ↑ वनपर्व महाभारत.28.12
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत.123.17
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत.123.17
- ↑ शांतिपर्व महाभारत.299.26
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत.82.14
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