- न ह्मनाढ्य: सखाढ्यस्य।[1]
निर्धन धनवान् का मित्र नहीं होता।
- अर्थैविहीन: पुरुष: परै: सम्परिभूयते। [2]
निर्धन मनुष्य दूसरों के द्वार अपमानित किया जाता है।
- अधनाद्धि निवर्तंते ज्ञातय: सुह्रद:।[3]
धनहीन मनुष्य से उसके भाई-बंधु और मित्र मुह मोड़ लेते हैं।
- अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वत: स्थितम्।[4]
पास में खड़े हुए निर्धन को लोग ऐसे देखते हैं जैसे कोई अभिशप्त हो
- नाधनस्यास्त्ययं लोको न पर:।[5]
निर्धन के लिये न यह लोक है न परलोक।
- नाधनो धर्म कृत्यानि यथावदनुतिष्ठति।[6]
निर्धन समुचित प्रकार से धर्म कार्य नहीं कर पाता।
- संति पुत्रा: सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम्।[7]
न चाहते हुए भी निर्धनों के अनेक पुत्र होते हैं।
- अधनं दुर्बलं प्राहु:।[8]
निर्धन को दुर्बल कहा जाता है।
- यो ह्मनाढ्य: स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम्।[9]
निर्धन को पतित और अल्प को जूठन समझा जाता है।
- अधनस्येह जीविताओं न विद्यते।[10]
संसार में निर्धन के जीने का कोई अर्थ नहीं है।
- प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विविर्जता:।[11]
धन से रहित व्यक्ति भी प्रयत्न से सिद्ध हो गये हैं।
- स्वजनस्तु दरिद्राणामं जीवतामपि नश्यति।[12]
निर्धनों को तो अपने लोग जीते जी दिखाई नहीं देते (पास नहीं आते)
- नावमंतव्या दरिद्रा: कृपणा अपि।[13]
दरिद्र और दीन का अपमान नहीं करना चाहिये।
- तारयेत् कृशदुर्बलान्।[14]
दीन दुखियों को संकट से पार करो।
- अकार्यमसकृत् कृत्वा दृश्यंते ह्मधना नरा:।[15]
अनेक लोग अनेक बार अनेक कुकर्म करके भी अनेक रुपये नहीं पाते।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आदिपर्व महाभारत 130.69
- ↑ वनपर्व महाभारत193.20
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 72.20
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 8.14
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 8.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 8.23
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 28.24
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 130.49
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 134.4
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 180.6
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 229.12
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 321.88
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 9.18
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 62.77
- ↑ अनुशासनपर्व महाभारत 163.6
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