निर्धन (महाभारत संदर्भ)

  • न ह्मनाढ्य: सखाढ्यस्य।[1]

निर्धन धनवान् का मित्र नहीं होता।

  • अर्थैविहीन: पुरुष: परै: सम्परिभूयते। [2]

निर्धन मनुष्य दूसरों के द्वार अपमानित किया जाता है।

  • अधनाद्धि निवर्तंते ज्ञातय: सुह्रद:।[3]

धनहीन मनुष्य से उसके भाई-बंधु और मित्र मुह मोड़ लेते हैं।

  • अभिशस्तं प्रपश्यन्ति दरिद्रं पार्श्वत: स्थितम्।[4]

पास में खड़े हुए निर्धन को लोग ऐसे देखते हैं जैसे कोई अभिशप्त हो

  • नाधनस्यास्त्ययं लोको न पर:।[5]

निर्धन के लिये न यह लोक है न परलोक।

  • नाधनो धर्म कृत्यानि यथावदनुतिष्ठति।[6]

निर्धन समुचित प्रकार से धर्म कार्य नहीं कर पाता।

  • संति पुत्रा: सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम्।[7]

न चाहते हुए भी निर्धनों के अनेक पुत्र होते हैं।

  • अधनं दुर्बलं प्राहु:।[8]

निर्धन को दुर्बल कहा जाता है।

  • यो ह्मनाढ्य: स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम्।[9]

निर्धन को पतित और अल्प को जूठन समझा जाता है।

  • अधनस्येह जीविताओं न विद्यते।[10]

संसार में निर्धन के जीने का कोई अर्थ नहीं है।

  • प्रयत्नेन च संसिद्धा धनैरपि विविर्जता:।[11]

धन से रहित व्यक्ति भी प्रयत्न से सिद्ध हो गये हैं।

  • स्वजनस्तु दरिद्राणामं जीवतामपि नश्यति।[12]

निर्धनों को तो अपने लोग जीते जी दिखाई नहीं देते (पास नहीं आते)

  • नावमंतव्या दरिद्रा: कृपणा अपि।[13]

दरिद्र और दीन का अपमान नहीं करना चाहिये।

  • तारयेत् कृशदुर्बलान्।[14]

दीन दुखियों को संकट से पार करो।

  • अकार्यमसकृत् कृत्वा दृश्यंते ह्मधना नरा:।[15]

अनेक लोग अनेक बार अनेक कुकर्म करके भी अनेक रुपये नहीं पाते।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आदिपर्व महाभारत 130.69
  2. वनपर्व महाभारत193.20
  3. उद्योगपर्व महाभारत 72.20
  4. शांतिपर्व महाभारत 8.14
  5. शांतिपर्व महाभारत 8.22
  6. शांतिपर्व महाभारत 8.23
  7. शांतिपर्व महाभारत 28.24
  8. शांतिपर्व महाभारत 130.49
  9. शांतिपर्व महाभारत 134.4
  10. शांतिपर्व महाभारत 180.6
  11. शांतिपर्व महाभारत 229.12
  12. शांतिपर्व महाभारत 321.88
  13. अनुशासनपर्व महाभारत 9.18
  14. अनुशासनपर्व महाभारत 62.77
  15. अनुशासनपर्व महाभारत 163.6

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