- राज्यं चेदं धर्ममूलं वदंति।[1]
राज्य का मूल धर्म को ही कहते हैं।
- पित्र्यं परराज्याद् विशिष्टम्।[2]
पैतृक राज्य पराये राज्य से अच्छा है।
- राज्यं हि सुमहत् तन्त्रं धार्यते नाकृतात्मभि:।[3]
राज्य की व्यवस्था बड़ी महान् होती है इसे असंयमी नहीं सँभाल सकते।
- राज्यं सर्वामिषं नित्यमार्जवेनेह धार्यते।[4]
राज्य सबको प्रिय लगता है, इसे सदा सरलता से ही चलाया जाता है।
- न च शद्धानृशंस्येन शक्यं राज्यमुपासितुम्।[5]
केवल दया और कोमलता से राजकार्य नहीं चल सकता।
- बहुप्रत्यर्थिकं ह्येतत्त राज्यं नाम।[6]
राज्यसत्ता को अनेक लोग पाना चाहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वनपर्व महाभारत 4.4
- ↑ उद्योगपर्व महाभारत 29.35
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 58.21
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 58.22
- ↑ शांतिपर्व महाभारत 75.18
- ↑ आश्रमवासिकपर्व महाभारत 36.12
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